क्या कहू
परेशां दिल की जुबां, क्या कहूँ।
हुई बेरंग दास्तां, क्या कहूँ।
अभी भी है वही धुंधली नज़र,
और है वही निगेहबां, क्या कहूँ।
कब से ना मिले किसी दोस्त से,
ये भी है एक दरमियां, क्या कहूँ।
खुद से पूछें और खुद को कहें,
किससे करूं हाल बयां, क्या कहूँ।
बहुत है रंजिश, मेरे हिज्र में,
और हैं कई तूफां, क्या कहूँ।
बड़े अदब से ज़िंदगी ने शायद,
पकड़ रखा है गिरेबां, क्या कहूँ।
ढूंढ़ना आसां नहीं खुद को ‘मनी’,
भूले कई अपना मकां, क्या कहूँ।
©शिवम राव मणि