क्या उत्तर दोगे ज़माने को
उदासी थी सिसक रही, मेरे ही लफ्जों में।
जैसे की मैं दफ़्न हूँ ,अपने ही कब्रों में।
कैसे जला दूँ ,तेरे लिखे खतों को ।
हिफाजत से रखे हैं संभाले बक्सों में।।
कतरा कतरा सांस लेना भी हुआ दुश्वार।
घर का मेरे पता नहीं अब नक्शों में।।
क्या हुआ की हम बिछड़ गए यूँ सनम।
कभी तो शामिल कर मुझे जिक्रो में।।
बेपनाह मोहब्बत है तुझसे अब भी मुझे।
जता न सकूँ जज्बातों को मैं शब्दों में।।
जिंदगी की तलाश में भटकते भटकते।
गुम सी गयी मैं अपने ही कस्बों में।
बन गयी हूँ बुझता हुआ दिया “आरती”का।
क्या उत्तर दोगे ज़माने को तर्कों मैं।।
आरती लोहनी