कौसानी की सैर
(संस्मरण का लघु कहानी स्वरूप)
गांव में ‘नवल’ और ‘राजा’ दोस्त थे, एक ही स्कूल में पढ़ते थे। राजा सामान्य परिवार से था और नवल के परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, थोड़ा बहुत छोटे-छोटे खेतों में अनाज व साग-सब्जियां हो जाती थी साथ ही पनचक्की में गांव वालों का अनाज पीसकर गुजारा हो जाता था, लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो उगाये नहीं जा सकते, खरीदने ही पड़ते हैं। नवल के परिवार वाले गांधी आश्रम का सूत कातकर व बनियान बुनकर कुछ पैसे का प्रबंध करते थे।
स्कूल की छुट्टियां थी नवल को घरवालों ने काते व बुने हुए सूत व बनियान गांधी-आश्रम में जमा करने भेज दिया। पांच किलो वजन जिससे आश्रम से पूरे २५ रुपए मिलने थे, और वापसी में चाय पत्ती, गुड़, नमक, तेल आदि कुछ आवश्यक सामग्री लाना था, यह सब घर में बिल्कुल खतम था।
आश्रम से लगभग आधा किलोमीटर पहले ही दोस्त ‘राजा’ मिल गया । कुशल क्षेम पूछने के बाद राजा भी साथ साथ चलने लगा। राजा के मन में एक बात आई- छुट्टियां हैं, क्यों न आज दोनों दोस्त पर्यटन स्थल “कौसानी” (१० कि.मी.आगे) चलें ? हैलीपेड, हेलीकॉप्टर देखेंगे, और हां वहां तो विदेश से अंग्रेज भी हिमालय देखने आते हैं । बहुत सुंदर जगह है। साथ में सरला आश्रम और प्रकृति के सुकुमार कवि पं. सुमित्रा नंदन पंत जी के जन्मस्थान को देखकर वापस आ जायेंगे। नवल बोला मैंने ऊन (सूत) जमा कराने जाना है, देर हो जायेगी, वहां भीड़ भी लगती है। राजा बोला “अरे अभी ग्यारह ही तो बजे हैं, तीन बजे तक जमा होता है, वापस आकर जमा करा देंगे, हां मैं भी आऊंगा तेरे साथ गांधी-आश्रम में, चिंता मत कर । और हां एक तरफ का बस का भाड़ा (५० पैसे) मैं दूंगा, एक तरफ पैदल चलेंगे, राजा ने कहा, और दोनों चल पड़े।
बहुत देर तक दोनों दोस्त कौसानी के सुरम्य वातावरण में घूमते रहे, हेलीकॉप्टर देखा, अरे हिमालय तो मानो हाथ से छू जायेगा। राजा के पास पूरे पांच रुपए थे, दोनों ने चने, बिस्कुट खाये और चाय पी, बहुत आनंद आया, अब सरला आश्रम, फिर कौसानी मेन मार्केट में आ गये ।
पर ये क्या अभी वे कौसानी में ही थे और पौने तीन बज गए, तीन बजे तो कैसे भी नहीं पहुंच पायेंगे गांधी आश्रम, फिर एक हफ्ते बाद ही जमा होगा, केवल मंगलवार को ही तो जमा होता है। घर में जो सामान खतम हो गया अब क्या होगा, नवल की चिंता बढ़ने लगी। राजा बोला हम फटाफट चलते हैं, साढ़े तीन बजे तक (आधा घंटा लेट) पहुंच जायेंगे, मैनेजर साहब से प्रार्थना कर लेंगे।
जैसे ही गांधी-आश्रम पहुंचे गेट बंद हो गया था। गेटकीपर साहब से गेट खोलने के लिए प्रार्थना की, पहले तो मना कर दिया कि भाई अंदर जाकर भी कोई फायदा नहीं, अब जमा नहीं होगा, अगले हफ्ते आना, फिर हाथ जोड़ कर मिन्नत की तो तरस आ गया। अंदर गये तो सन्नाटा, वहां तो कोई नहीं है, मैनेजर साहब बंद कर सामान स्टोर कीपर को जमा करा चुके थे, परिसर में चाय की दुकान पर चाय पी रहे थे, पास के गांव के ही तो हैं, रिक्वेस्ट कर लेते हैं।
बहुत प्रार्थना की कि मेरा सामान जमा कर लीजिए, घर वापस ले जाऊं तो घरवाले नाराज होंगे और फिर घर में जो सामान खतम है……. चिंता बढ़ रही थी।
मैनेजर साहब को अपनी गलती बतायी। वे बोले मैं जमा कर लेता हूं, लेकिन कैश काउंटर तो अब नहीं खुल सकता, पैसे अगले हफ्ते मिलेंगे। नवल मुंह लटकाकर घर पहुंचा । मां ने प्यार से कहा भूखा रह गया, भीड़ होगी, बहुत देर कर दी। पैसे मिले, सामान लाया? नहीं मां ऊन जमा कर मैनेजर साहब ने कहा आज पैसे नहीं हैं, अगले हफ्ते मिलेंगे। मां का हृदय बच्चे की संभावित थकान से पिघल रहा था, और नवल मां का वात्सल्य देख अपने झूठ पर अफसोस कर रहा था। उससे न रहा गया, रात्रि को मां को सबकुछ सच बता दिया, और आगे से ऐसा नहीं होगा यह आश्वासन भी दिया। उधर मां सोचने लगी ‘सबके बच्चे तो कभी कभी घूमने फिरने जाते हैं, इसका भी तो मन करता होगा, लेकिन आर्थिक स्थिति के चलते हम भेज नहीं पाते, स्कूल के साथ ही घर के काम के चलते अधिक देर खेल भी नहीं पाता’ ! मां का वात्सल्य छलक पड़ा, गले लगाया, दोनों की आंखें मानो मेघ बरसा रहीं थीं, आज पड़ौस की चाची से कुछ उधार ले आते हैं, अब अगले मंगलवार का इंतजार था ।
– नवीन जोशी ‘नवल’
(मित्रों इसे कहानी ही नहीं संस्मरण समझें, मुझे यह कहने में संकोच नहीं, लेकिन आज सबकुछ है, संपन्नता है पर माता पिता नहीं 😭)