कौन हूँ मैं
कौन हूँ मैं
लाडली बेटी के रूप में मेरी माँ ने जनी।
मैं किसी की बहन तो किसी की पोती बनी।
समय के साथ साथ मैं बढ़ती गयी।
पाबंदियां मुझ पर लगती गयी।
अपने मन की बातें मन में ही छिपा लेती।
रोक कर आंसू अपने मैं मंद मंद मुस्कुरा देती।
जवान हुई तो घर वालों ने कर दी शादी।
वो भी छीन गयी जो मिली हुई थी आजादी।
ससुराल में सब से दब कर रहना पड़ता।
छोटी छोटी बातों पर हर कोई मुझसे लड़ता।
समय का पहिया यूँ ही चलता रहा।
हर रिश्ता मुझे यूँ ही छलता रहा।
रिश्तों की डोर से बंधी आज तक मौन हूँ मैं।
पर मन में एक सवाल उठता है कौन हूँ मैं।
क्या मेरा वजूद है, क्या मेरी हस्ती है।
दुनिया क्यों मुझ पर ही तंज कसती है।
जब भी अपना वजूद तलाशना चाहा।
दुनिया ने पैरों तले मुझे कुचलना चाहा।
आखिर कब तक अपने वजूद से महरूम रहूंगी मैं।
अब तो हकीकत ऐ फ़साना खुल कर कहूँगी मैं।
“”सुलक्षणा”” भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है।
दिन प्रति दिन सफलता की एक एक सीढ़ी चढ़ रही है।