कौन फैलाता प्रदूषण
कहर भले ही जीवाणु का है
सागर नदियाँ ताल हो रहे स्वच्छ।
घट तट तीरे सब श्वास ले रहे
रेत में लोटते कछुए मगरमच्छ।
पारदर्शी है सरित सलिल यूँ
मानों है देख रहे हम काँच।
स्वयंसिद्ध यह हो रहा बंधु
मानव प्रकृति पर लाता आँच।
ठहरा जो मानव घर भीतर तो
ओजोन परत ने खुशी मनाई।
छिद्र उसका हो गया संपूरित
मानव प्रदूषण से मुक्ति पाई।
ईश्वर न करे कभी भविष्य में
पुनः भी ऐसे कोई दुर्दिन आएं।
कि महामारी से महाविनाश
ही हम को कोई सबक सिखाए।
युगों-युगों से संस्कृति में हमारी
प्रकृति है मित्र वसुंधरा है माता।
नदियाँ हैं माँ और जल अमृत
इनसे हमारा माँ – पुत्र का नाता।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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