कौन पैदा हुआ कौन मरा, बुद्ध संकल्पना
जिस प्रकार घी को दही नहीं कह सकते, दही को दूध नहीं कह सकते और दूध को दही, मट्ठा या घी नहीं कह सकते जबकि सभी दूध ही हैं। उसी प्रकार जीवन के भिन्न-भिन्न चरण है, शिशु जो पैदा हुआ उसे बालक नहीं कह सकते, बालक को युवा नहीं कह सकते और युवा को वयस्क नहीं कह सकते और वयस्क को वृद्ध नहीं कह सकते।
इसी तरह घी का स्वाद दूध की तरह नहीं हो सकता उसी भाँति जीवन की किसी भी अवस्था का स्वरूप पैदा हुए शिशु की भांति नहीं हो सकता। जब हम पैदा होते हैं वह एक अवस्था होती है किंतु उसी अवस्था से ही हम अपनी मृत्यु तक अनेकों बार पैदा भी होते हैं और मरते भी हैं।
शिशु से बालक पैदा होता है बालक से युवा, युवा से वयस्क, वयस्क से वृद्ध और वृद्ध से मृत्यु पैदा होती। माँ शिशु को जन्म देती है, शिशु उसी शरीर में बालक को जन्म देता है, बालक युवा को जन्म देता है, युवा वयस्क को, वयस्क वृद्ध को और वृद्ध मृत्यु को जन्म देता है।
जो जन्म लेता है वह नहीं मरता बल्कि उसी शरीर के बदले स्वरूप में कोई अन्य मरता है। शरीर जीवन के भिन्न-भिन्न चरणों में मरता है, पहले शिशु मरकर बालक पैदा करता है, बालक मरकर युवा पैदा करता है, युवा मरकर वयस्क पैदा करता है और वयस्क मरकर वृद्ध पैदा करता है और वृद्ध मरकर उस शरीर की अंतिम मृत्यु पैदा करता है। इस प्रकार जो पैदा होता है वह नहीं मरता पर दूसरा भी नहीं मरता क्योंकि उसी शरीर में भिन्न प्रणीत होता है किंतु वह पूर्णतः भिन्न भी नहीं होता।