कौन जानें कल क्या हो…
किसी सच को वो, देख नहीं पा रहा
छा गया, हकीक़त पर कोहरा सा है…
बंद हूँ आजकल, उजालों की कैद में
हर तरफ आता नज़र, बस अंधेरा सा है…
जिस रिश्ते की डोर, बुनी थी कभी मैंने
उलझा -उलझा उसका, हर सिरा सा है…
एक-एक शख़्स क़ातिल है, अपना तो
भागता जो फिर रहा, वो मेरा सा है…
तारीखों का हिसाब जोड़ना, छोड़ दिया
मेरे घर का तिनका- तिनका, बिखरा सा है…
गुमाँ में घूमता था बेखौफ, जो हमेशा
आजकल वो शख़्स, कुछ डरा-डरा सा है…
पल-पल जिसके, अंदाज़ बदलते देखें
शायद, वो शख़्स कुछ दोहरा सा है…
कौन जानें कल क्या हो, तेरे साथ ‘अर्पिता’
बंद कर ले आँखों को, इनमें वो चेहरा सा है…
-✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’