कौड़ी के भाव ले के दुआ
कौड़ी के भाव ले के दुआ राहगीर से
करते हैं कारोबार हम अक्सर फ़कीर से
कुछ सोचकर फसील उठाई नहीं अभी
फिलहाल घर को बांट लिया है लकीर से
पाकर उरूज़, वक्त कभी भूलते नहीं
गिरते नहीं है हम कभी अपने ज़मीर से
अपनों ने आज फर्ज निभाया है इस तरह
घायल हुए हैं हम भी मुहब्बत के तीर से
होती नहीं नदी की समंदर से दोस्ती
मालूम है गरीब का रिश्ता अमीर से
सर में दिमाग हाथ में रखते हैं हम कलम
अंदाजा मत लगाओ, हमारा शरीर से
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फसील=दीवार, उरूज़=उत्थान, जमीर=अंतःकरण