कोहिनूर
सरेआम गुनाह कबूल करती हूँ।
बदले में गमगीन दर्द रोज पीती हूं।
दर्द इतना हैं बता पाती अगर मेरे होते।
दुनियाँ दर्द ढ़ोती हैं अपने दर्द तो सभी सीने से लगाकर
रोज चुपचाप दिल से रो लेते है।
फ्रर्क हैं दुनियाँ बनाने वाले जो कोहिनूर को सजा तो
बेशकीमती बनाते हैं, इसलिए इज्जत की तौर पर कोयला को
भट्टी मे जलाते है।_ डॉ सीमा कुमारी ,बिहार, भागलपुर, दिनांक-17-6-022 की मौलिक एवं स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।