कोहरा
उठने का साहस तो करता हूं मैं
भेद नहीं पाता हूं कोहरे का पहरा ।
कोहरे ने कैद कर लिया है मुझे
सर्दी का सागर है कितना गहरा ।
लिहाफ छोड़ नहीं पाया हूं अबतक
‘चाय तैयार है’ सुनकर भी हूं बहरा ।
जो गर्म कर दे अपने आग से मुझे
ढूंढता हूं वह आदमी ,मुसाफिर जो ठहरा ।
आपसे मिलने तो जाना है आज मुझे
आपने बुलाया था, कोहरे का है नखरा ।
बेशर्म होकर पसरा है अबतक कोहरा यहां
शीत – ठंड है, कोहरा हो रहा और भी गहरा ।
कोहरा अभी रहेगा और भी हरा- हरा
सूरज ने ही छिपा लिया है अपना चेहरा ।
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@रचना- घनश्याम पोद्दार
मुंगेर