कोशी के वटवृक्ष
यह किताब मैंने 2022 के पूर्वाध में मंगाई थी लेकिन एक चैप्टर बाद यह रह गयी थी तो मैने सोचा कि साल के शुरुआत में ही इसको पढ़ लिया जाय। यह कहानी सुपौल जिले के उन बुजुर्गों की है जिनका 2008 के कोशी के बाढ़ में सब कुछ छीन गया। पुष्यमित्र जी लिखित यह किताब काफी रिसर्च और आँकड़ो पर आधारित है।
2008 के बाढ़ के बाद सुपौल जिले के इन बुजुर्गों का घर बार सब कुछ छीन गया यहाँ तक कि रिश्तों की गर्माहट को भी कोशी के बाढ़ में बहकर आये रेतों ने पूरी तरह ढँक दिया था। जब चारों ओर अँधेरा हो तो चाहे उम्र कोई भी हो लोग उजाला ढूँढने का प्रयास ही करते है यही मानव जीवन है भले कोशी ने 1954 के बाद 2008 में कोशी डायन का रूप लेकर सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया में जिस तरह की विभीषिका देखी वह दशकों में एक बार देखने को मिलती है।
यह विभीषिका इतनी बड़ी थी कि तत्कालीन केंद्र की सरकार को इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना पड़ा। राष्ट्रीय आपदा घोषित करने से ऐसी विभीषिकाओं में सब कुछ खो चुके लोगों को कितना फायदा पहुँचता है यह तो समय ही बताता है लेकिन ऐसी आपदाओं से लोग खुद ही किसी तरह निकलते है चाहे तमिलनाडु का सुनामी झेल चुके लोग या उत्तराखंड की त्रासदी झेल चुके लोग हो आखिरकार उन्हें खुद ही अपने लिए रास्ता निकालना होता है ऐसी त्रासदियों से बाहर निकलने का। सरकारी योजना कुछ जगह पहुंचती तो है लेकिन अधिकतर जगह यह भ्रस्टाचार की भेंट चढ़ती हुई दिखाई पड़ती है। सुपौल में लोगों ने हेल्पेज इंडिया की मदद से बुजुर्गो ने न सिर्फ अपने आप को खड़ा किया बल्कि ऐसे कई सामाजिक बुराइयों से बाहर निकलकर समाज में एक उदाहरण पेश किया जो यह साबित करता है कि बुजुर्ग चाहे किसी उम्र के हो उन्हें अगर थोड़ी सी भी सहायता मिले तो वे पहाड़ भी चढ़ सकते है। यही सुपौल जिले के इन बुजुर्गो ने कर दिखाया। जब आदमी के पास खोने को कुछ नही रहता है तब वे ज्यादा जोश के साथ अपनी ही गलतियों के साथ सीखते हुए आगे बढ़ते है यही इन बुजुर्गो ने किया। जब इन्हें लगा कि अब इनका साथ सबने छोड़ दिया है यहाँ तक कि उनके परिवार वाले भी इन्हें बोझ समझने लगे तो इसी अंधेरे में हेल्पेज इंडिया इनको एक तरह से रोशनी दिखाने की कोशिश करती है। लेकिन जब आप ऐसे सामाजिक कार्य को हाथ मे लेते है यह हमेशा से होता आया है कि समाज के वे लोग जिनके स्वार्थो पर ऐसे कामों से कुठाराघात होता है वे आपका हर संभव विरोध करते है। भले ही लेखक इस किताब के माध्यम से कुछ चीजों पर पर्देदारी की हो लेकिन मैं भी संयोगवश उसी कोशी की विभीषिका देखने वालों में से हूँ जो हर साल इस मंजर को देखता है चाहे कम स्तर पर हो या बृहद स्तर पर।
इस कहानी में हर किरदार अलग है अलग पृष्ठभूमि से आता है अलग अलग जाति समुदाय या अलग अलग धर्मो के लोग एक मंच पर आकर इन बुजुर्गो ने न सिर्फ अपनी जमीन तैयार की बल्कि इस इलाके के युवाओं में जो दिल्ली पंजाब जाकर काम करने की रफ्तार थी उसपर भी रोक लगाया। इससे मजदूरों का पलायन रुका, साथ में परिवार के लोगों ने इन बुजुर्गों को एक एसेट की तरह देखना शुरू किया। और बुजुर्गों ने भी इतना होने के बाद भी अपने बच्चों को वापस मुख्यधारा में लाने का हर संभव प्रयास किया चाहे वह बुजुर्गों का मान सम्मान करना हो या बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों के लिए रोजगार के द्वार खोलना, दोनों तरफ से एक दूसरे को समझने की भरपूर कोशिश हुई और आज इस ग्राम सहायता समूह ने अपना एक रजिस्टर्ड संस्था बनाया है जिसमें सुपौल, मधुबनी और दरभंगा जिले के लगभग 6000 बुजुर्ग इससे जुड़कर 6000 परिवारों की जिंदगी में बदलाव लाने का हरसंभव प्रयास हो रहा है। आज यह ग्रुप इतना सक्षम है कि किसी भी तरह की प्राकृतिक विपत्ति आने पर ये लोग अपना कर्ज चुकाने के नाम पर अनाज , पैसा और पशुओं के लिए भी चारे का इंतजाम करते है। क्योंकि इन्हें लगता है जब इनपर विपत्ति आयी थी तो देशभर के लोगों ने इनकी मदद की थी और यह इनपर एक कर्ज है जो उतार तो नही सकते है लेकिन उसके हिस्से को कम अवश्य करते है यही वजह है जब उत्तराखंड में त्रासदी आयी थी तो इस ग्रुप ने 5 लाख 40 हजार रुपैया यह कहकर दिया कि इसे दान ना समझा जाए यह उनपर कर्ज है जो वे इस मदद के साथ इसको कम करना चाहते है। ऐसा ही जब 2019 में मधुबनी में बाढ़ आई थी तो इस ग्रुप ने 2500 परिवारों के लिए सूखा राशन और 25 क्विंटल पशुओं के लिए चारा भी भेजा था। आप कल्पना कीजिये यह ग्रुप ऐसे उम्र के लोगों की है जिसे उम्र के इस पड़ाव में रिटायर्ड मान लिया जाता है और वे आज 6000 परिवारों के लिए एक मिसाल बन रहे है जो उम्र के आखिरी पड़ाव में जीवन जीने के तरीके को समझने का प्रयास कर रहे है साथ में कई लोगों के जीवन मे बदलाव भी ला रहे है। लेखक Pushya Mitra जी का धन्यवाद इतनी बढ़िया और प्रेरणादायक कहानी समाज के बीच में लाने के लिए।
धन्यवाद।
©✍️ शशि धर कुमार