“कोलाहल या हलाहल”
यह कोलाहल कैसा है
बिल्कुल हलाहल जैसा है
पिघला सीसा सा
कानों में टपकता है
किसी अग्नि दैत्य सा
कोमलकर्ण की ओर
लपकता है
इसके असर से चेतन भी
अचेत सा हो रहा है
देखो न वो अबोध बच्चा
आवाजों से बेखबर
कैसा सो रहा है?
दरअसल वह शून्य में है
सो नहीं रहा
कोलाहल ने
उसे जागते में ही सुला दिया है
क्योंकि उसकी श्रवण शक्ति को ही
इसने गला दिया है
पुकारो उसे, पुकारो
वह नहीं बोलेगा
मुँह भी नहीं खोलेगा
पलट कर देखेगा भी नहीं
आपकी मधुर कंठध्वनी
उसके लिए बेमानी है
संगीत की सुर-सरिता के
नहीं कोई माने हैं
क्योंकि उसके कानों में
कोलाहल बसा है
पिघला हुआ सीसा फंसा है
कानों में कोलाहल बसा है
अपर्णा थपलि़याल”रानू”