कोरोना से लड़ने की वैदिक धारणा
हरी: ॐ
पुरुषएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |
उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।
आज समूचा विश्व कोरोना की चपेट में है। भारतवर्ष भी इससे अछूता नहीं है। किन्तु स्वास्थ्य की दृष्टि से भारत की स्थिति अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा सुदृढ़ है। जहां एक ओर कोरोना के कारण उत्पन्न मृत्यु-दर कम है, वहीं स्वास्थ्य लाभ की दर अधिक है। हमारे देश की एक बड़ी आबादी कुपोषित एवं गरीबी के प्रभाव से पीड़ित है। ऐसे में जहां एक ओर दुनिया इससे आश्चर्यचकित है, वहीं दूसरी ओर इसके पीछे अनेक कारण एवं तर्क भी दिए जा रहे हैं।
एक बड़ा धड़ा यह मानता है कि भारतीयों का वैदिक दृष्टिकोण एवं जीवनयापन की शैली एक बड़ी वजह है। खानपान की उपलब्धता, चुनाव एवं सुचिता सभी पर वेदों में दर्शन उपलब्ध है। हम सभ्यता के तौर पर कितना भी बदल जाएं परन्तु हमारी संस्कृति अक्षुण रहती है। यही वजह है कि इस देश में अन्न को देव तुल्य माना गया है। मांसाहार की प्रवृत्ती भी शाकाहार के नियमों के ही अधीन है। अर्थात् जो खाद्य है केवल उसी का सेवन करना है और जितनी आवश्यकता है उतना ही प्रकृति से लेना है।
यही नहीं, भोज्य पदार्थों का सेवन भी मौसम, व्यक्तिगत अवस्था, उनके गुण धर्म एवं सहचर्य के प्रभाव के आधार पर निर्धारित है। आयुर्वेद में रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास से लेकर बीमारियों के जड़ तक पहुंच कर उपचार करने के तरीके वर्णित हैं। वर्तमान सरकार के राज्यश्रय से आयुष विभाग जल्द ही वर्तमान महामारी पर नैदानिक परीक्षण करने जा रहा है।
जीवनशैली की बात करें तो झुककर सम्मानपूर्वक नमस्कार करना हमारा राष्ट्रीय अभिवादन है। किन्तु हम पाश्चात्य सभ्यता की ओर झुक गए और हैंडशेक कर बीमारियां घर लेे आए। सामाजिक दूरी की संकल्पना करने वाला पश्चिम जब नमस्ते अपनाने की बात करता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हम दो कदम हमेशा आगे थे। परन्तु सामाजिक दूरी का सिद्धांत पूर्णतः गैर वैज्ञानिक है। वस्तुतः शारीरिक दूरी एवं सामाजिक सदभाव का पालन करने पर बल देना उचित है। बाहर से लौटकर घर आने पर चौखट पर पैर, हाथ और मुंह धुलकर ही प्रवेश करना हम भूल गए। वसुतः हमने चौखट है समाप्त कर दी। रेफ्रिजरेट करने के चक्कर में हमने ताजे फल एवं सब्जियों के प्रयोग को कम कर दिया। उपभोगवादी बाज़ार ने हमें वो खरीदने की आदत डाल दी जो हमें चाहिए भी नहीं था। भोग की यही अवधारणा विनाश का कारण है। अर्थव्यवसथाओं के टूटने का कारण भी इसका भोग जनित एवं आधारित होना है।
यह वैदिक दर्शन ही है कि बंदी के इस दौर में जब समाज का एक बड़ा वर्ग भूख से व्याकुल है, तब मनुष्यता की पराकाष्ठा देखने को मिल रही है। अनेकोनेक व्यक्ति, संगठन, सहायता समूह, धार्मिक अनुष्ठान इत्यादि यथाशक्ति इस मानव कार्य में अपनी आहुति दे रहें हैं। यही तो यज्ञ है। यज्ञ, कर्मकांड की विधि है जो परमात्मा द्वारा ही हृदय में सम्पन्न होती है। जीव के अपने सत्य परिचय जो परमात्मा का अभिन्न ज्ञान और अनुभव है, यज्ञ की पूर्णता है।
तो वास्तविकता में भारतीयता एवं वैदिक परंपरा कैसे कोविड-१९ से लड़ने और इसके पश्चात फिर से भारत को विश्वगुरु बनाने में उपयोगी है, यह एक बड़ा प्रश्न है जिसका जवाब हमें ही ढूंढना है।
हमें उन ग्रंथों में झांकना होगा। हमारे अतुलनीय ज्ञान को चुराकर हमें ही आंखे दिखाने वाले पश्चिम को दिखाना होगा की भारत विश्व गुरु क्यों था। हमें अपनी चिकित्सा पद्धति पर भरोसा करना होगा उसे बढ़ावा देना होगा। भावप्रकाश नीघंटू जैसे अतुलनीय ग्रंथ हमें मुख्यधारा में लाने पड़ेंगे। ध्यान रहे चीन ने भी कोविड-१९ से लड़ाई में अपनी पारंपरिक चिकित्सा का पूरा प्रयोग किया जिसके प्रभाव सकारात्मक थे। हमें आंख मूंद कर पश्चिम को श्रेष्ठ मानना बंद करना पड़ेगा क्योंकि इस लड़ाई में सबसे पीछे वही हैं। हमें खुद खड़ा होना पड़ेगा।
छोटे से इस आलेख में बहुत लिखना कठिन है। एक महर्षि से यमराज ने पूछा आप ने जीवन में बहुत उत्तम कार्य किए यदि आपको १०० वर्ष की आयु और दूं तो आप क्या करेंगे वह बोले मैं वेद पढूंगा। यमराज ने कहा और सौ वर्ष दूं, तो महर्षि फिर बोले मैं वेद पढूंगा। अर्थात् वेदों का ज्ञान इतना गहरा है इसे जितना पढ़ेंगे उतना ही कम है। और सभी ज्ञान इसी में समाहित है। जरूरत है वह दृष्टि रखने की।