”कोरोना-मुझको जीना सीखा गया”
कविता-20
आठों पहर खूब सोचा ज़माने भर के लिए,
लेकिन खुद के बारे में कभी ना सोचा।
हर किसी की ख्वाहिश पूरी करने में खूब
परिश्रम, खूब त्याग किया मगर,
खुद की चाहतों का क्या कभी ना सोचा?
घर-गृहस्थी,समाज के लिए वक्त दिया,
मगर खुद को कितना वक्त दिया कभी ना सोचा।
दौलत शोहरत सब जमाने की झूठी शान है,
खुद के लिए कितना जीता हूं कभी ना सोचा।
“कोरोना काल” में जब ठहर गया घर में,
खुद को वक्त दिया, खुद से मुलाकात की,
तब खुद के लिए भी जीना सीख गया।।