कोरोना का अंधड़
शहर की वीरान गलियां
सूने रास्ते यहाँ के ,
रात का ख़ामोश काजल
किसने लगाया सुबह के,
दर्द ने फिर साज़ छेड़ा
ख़ौफ़ से सहमी निगाहें ,
गूंज उठी इस ज़मीं पे
बेबसी की कुछ सदायें ,
कैसी ये हवा चली जो
कोरोना का अंधड़ उठा ,
ख़ौफ़ का घना धुआँ सा
निग़ाहों में पल उठा ,
बुझती आँखों की शमा ने
उखड़ती सांसों से पूछा ,
किसने की थी साज़िशें ये
किसने खेला खेल ऐसा ,
किसने गुलों के चमन में
आग का दरिया बहाया ,
किसने महकी सी फ़िज़ां को
जलती चिता पे सुलाया ,
जलते सूरज की निग़ाह में
मौत का आतंक ठहरा ,
रौशनी के तन पे बिखरा
स्याह रात का अँधेरा ,
सुलगती हुई निग़ाह में
ख़ामोश अश्क़ों के धारे ,
रात की जुल्फों में उलझे
खुशियों को छलते नज़ारे ,
ज़िंदगी का कारवां कुछ
यूँ लगा की थम गया ,
बर्फ के मानिंद सबका
लहू जैसे जम गया ,
टूटती सांसों की सरगम
छूटते अपनों के साए ,
ज़िंदगी हो गयी फ़ना औ
खवाब भी हो गए पराए ,
शबेग़म की खामोशियाँ
सुबह की मुस्कान में भर ,
तन में उठी सिहरन सी
अपने ही साए से डर ,
गुम हुआ बचपन का कलरव
उदासियों ने डाले डेरे ,
मीठी सी शरारतों पे
लग गए हज़ार पहरे ,
शोख़ मुलाक़ातों का
एक दौर भी सहम गया ,
ग़मों की तपिश बढ़ी
ज़ज़्बातों का मौसम गया ,
सूख रहा ज़िंदगी में
इश्क़ का कोई समुन्दर ,
हर तरफ उगने लगे
दहशतों के घने जंगल ,
दबने लगी सिसकियों में
मौत की कुछ दास्तानें ,
दर्द का उठा धुंआ तब
ख़ौफ़ की सौग़ात पाने ,
वक़्त भी मुश्किल घडी में
ले रहा था इम्तहां जब ,
राहों में बुझती निग़ाह को
मिले फ़रिश्तों के निशां तब ,
पहन के सफ़ेद कोट
सभी की बन गए ढाल ,
भिड़ गए जो काल से
डाक्टर बन गए खुद मिसाल ,
वक़्त है मुश्किल मगर
ये भी गुज़र जाएगा कल ,
इक नई उम्मीद की फिर
कोई राह बनाएगा कल ,
जीतने इस जंग को
जब साथ उठेगे कदम ,
बीतेगा दौर – ए – खिज़ां
बदलेगा फिर से मौसम.
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