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18 Feb 2022 · 2 min read

कोरोना   का      अंधड़   

शहर की वीरान गलियां

सूने रास्ते यहाँ के ,

रात का ख़ामोश काजल

किसने लगाया सुबह के,

दर्द ने फिर साज़ छेड़ा

ख़ौफ़ से सहमी निगाहें ,

गूंज उठी इस ज़मीं पे

बेबसी की कुछ सदायें ,

कैसी ये हवा चली जो

कोरोना का अंधड़ उठा ,

ख़ौफ़ का घना धुआँ सा

निग़ाहों में पल उठा ,

बुझती आँखों की शमा ने

उखड़ती सांसों से पूछा ,

किसने की थी साज़िशें ये

किसने खेला खेल ऐसा ,

किसने गुलों के चमन में

आग का दरिया बहाया ,

किसने महकी सी फ़िज़ां को

जलती चिता पे सुलाया ,

जलते सूरज की निग़ाह में

मौत का आतंक ठहरा ,

रौशनी के तन पे बिखरा

स्याह रात का अँधेरा ,

सुलगती हुई निग़ाह में

ख़ामोश अश्क़ों के धारे ,

रात की जुल्फों में उलझे

खुशियों को छलते नज़ारे ,

ज़िंदगी का कारवां कुछ

यूँ लगा की थम गया ,

बर्फ के मानिंद सबका

लहू जैसे जम गया ,

टूटती सांसों की सरगम

छूटते अपनों के साए ,

ज़िंदगी हो गयी फ़ना औ

खवाब भी हो गए पराए ,

शबेग़म की खामोशियाँ

सुबह की मुस्कान में भर ,

तन में उठी सिहरन सी

अपने ही साए से डर ,

गुम हुआ बचपन का कलरव

उदासियों ने डाले डेरे ,

मीठी सी शरारतों पे

लग गए हज़ार पहरे ,

शोख़ मुलाक़ातों का

एक दौर भी सहम गया ,

ग़मों की तपिश बढ़ी

ज़ज़्बातों का मौसम गया ,

सूख रहा ज़िंदगी में

इश्क़ का कोई समुन्दर ,

हर तरफ उगने लगे

दहशतों के घने जंगल ,

दबने लगी सिसकियों में

मौत की कुछ दास्तानें ,

दर्द का उठा धुंआ तब

ख़ौफ़ की सौग़ात पाने ,

वक़्त भी मुश्किल घडी में

ले रहा था इम्तहां जब ,

राहों में बुझती निग़ाह को

मिले फ़रिश्तों के निशां तब ,

पहन के सफ़ेद कोट

सभी की बन गए ढाल ,

भिड़ गए जो काल से

डाक्टर बन गए खुद मिसाल ,

वक़्त है मुश्किल मगर

ये भी गुज़र जाएगा कल ,

इक नई उम्मीद की फिर

कोई राह बनाएगा कल ,

जीतने इस जंग को

जब साथ उठेगे कदम ,

बीतेगा दौर – ए – खिज़ां

बदलेगा फिर से मौसम.

———-

Language: Hindi
244 Views
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