कोरोना काल मौत का द्वार
वो पत्तों का नहीं, दरख्तों का पतझड़ था,
वह आँधी तूफान नहीं, प्रकृति का तांडव था,
ऐसा मंजर छाया था धरती पर,
हर तरफ मौत का समंदर था,
हर कोई घर में बंद था, जीवन कश्मकश में था,
साँस लें तो मर जाएं, साँस ना लें तो मर जाए,
साँसे कैद थी सिलेंडर में, इंसान बंद था बंकर में,
सड़कों पर तो बस लाशें बेखौफ थी,
जिंदगी के लिए तो घर में भी मौत थी,
किनारा आ गया था जीवन का, द्वार खुल गया था मौत का,
बच्चा,बूढ़ा,जवान सब काल कलवित हो रहे थे,
महिला और पुरुष सब अंदर ही अंदर रो रहे थे,
अति सूक्ष्म दुश्मन ने ऐसा हाल कर दिया था,
इंसान की औकात को प्रकृति ने आईने के सामने रख दिया था,
हाइड्रोजन, परमाणु, मिसाइल सब बम बेकार थे,
सुपर कम्प्यूटर, ड्रोन, रडार, सेटेलाइट सब कबाड़ थे,
हाहाकार मचा हुआ था हर छोटे बड़े देश में,
कब्रिस्तान और श्मशान भरा हुआ था हर देश में,
लाशें घरों से निकालकर फेंकी जा रही थी,
नदियों में लाशें नाव बनकर आ रही थी,
ना दिखने वाले जीव ने हाल ये ऐसा कर दिया था,
चाँद मंगल पर जा रहे लोगों को घरों में ही कैद कर दिया था……
prAstya…………… (प्रशांत सोलंकी)