“कोरोना” एक अभिशाप
एक दहशत सी है इन फिज़ाओं में
फैल गया है जहर इन हवाओं में,
मोहलत भी नहीं दे रहा सुधरनें का
यह कैसी आपदा है इस जहान में।
हर जगह हाहाकार सा है
हर कोई यहां बीमार सा है,
दूरियां बनाना अब मज़बूरी हो गया
डर कर रहना भी जरूरी हो गया।
प्रकृति का यह कैसा प्रकोप है
सृष्टि विनाश का यह अलग ही रूप है।
घरों में बैठे है सब विनाश की पुकार से,
मर रहे है रोज यहां लोग
इस महामारी की मार से।
पता नहीं यह अंत करेगा
क्या करतूत दिखाएगा,
खुद ख़तम होते – होते
कितनों को यह खाएगा।