कोई शुहरत का मेरी है, कोई धन का वारिस
कोई शुहरत का मेरी है, कोई धन का वारिस
काश होता कोई इस ख़ाके – बदन का वारिस
जान से प्यारी है मुझको ये वतन की मिट्टी
मुल्क का अपने मुहाफ़िज़ हूँ, वतन का वारिस
बारहा मैंने उसे फूल मसलते देखा
बनके बैठा है चमन में जो चमन का वारिस
बद नसीबी कि कभी छत भी, मयस्सर न हुई
और कहने को हूँ मैं चर्खे़-कुहन का वारिस
उसकी यादें भी ख़फ़ा हो गयीं मुझसे वरना
मुद्दतों मैं रहा उस शोख़ के मन का वारिस
अपनी ग़ज़लों में फ़क़त मीर का रस घोल दिया
सारी दुनिया मुझे समझे है सुख़न का वारिस
ज़िन्दगी भर जो हिमायत में अंधेरों की रहा
मुन्तख़ब हो गया “आसी” वह किरन का वारिस
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सरफ़राज़ अहमद आसी