कोई बन जाता है क़ातिल कोई बनता नाख़ुदा
परवरिश की बात है या है मुक़द्दर में लिखा
कोई बन जाता है क़ातिल कोई बनता रहनुमा
ज़िन्दगानी के सफ़र में अजनबी ऐसा मिला
लूटकर वो ले गया मेरी वफ़ा का क़ाफ़िला
जिसने बाँटी सबको ख़ुशियाँ चैन दिल का पा गया
दूसरों का दिल दुखाकर क्या ख़ुशी है क्या मज़ा
सिलसिले मिलने-मिलाने के बहुत फिर कम हुये
रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ गया जब दरमियाँ का फ़ासला
जिन चराग़ों की रही है रौशनी महलों में बस
वो करेंगें बस्तियों को फिर से रौशन क्या भला
कोई जाता है इधर तो कोई जाता है उधर
इस तरफ़ दैरो-हरम हैं उस तरफ़ है मैक़दा
सबके अपने मसअले हैं सबको अपनी फ़िक्र है
कोई सुनता ही नहीं लाचार की आती सदा
जी रहे लालच में कुछ तो कुछ अना में चूर हैं
दूसरों को छल रहे हैं कर रहे अपना बुरा
आग ये बुग़्ज़ो-हसद की कब तलक बुझ पाएगी
सोचकर के बात ये ‘आनन्द’ रहता ग़मज़दा
– डॉ आनन्द किशोर