कोई न अपना
इस जग, संसार, सृष्टि में
कोई न हो पाया अपना
कोई भी कैसा भी रिश्ता
कितना भी पकि पावन
इस अनोखी सी सृष्टि में
कोई हितक हमारा यहां
ना हो पाया स्वजन का
कोई न निज इस जग में।
इस खलक का खेल है यह
जब तक गर्ज तब तक मित
जरूरत खत्म होने के पश्चात
आप है कौन ? जैसे अंजान
एहतियाजता पड़ने पर ही
कोई किसी को करता याद
साथी, संगी कोई फरिश्ता
कोई न अपना इस जग में।
इस सृष्टि की अनूठी माया
भाई – भाई में आज कल
बढ़ती जा रही है बेकरारी
आजकल भाई की ग्रीवा कट
रही भाई के सूली असियों से
कोई न साथ निभाता निज
इस अनोखी- सी हयात में
कोई न स्वजन इस जग में।
अमरेश कुमार वर्मा
जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार