कोई तुमसा नहीं (कविता)
कुछ नहीं लिख पाया तुम पर जब
तो बस मन से मन की प्रीत लिखी
मैंनें अपनी हार लिखकर प्रिय
बस खुद पर तुम्हारी जीत लिखी
सूर्य की पहली किरण का
एक अनछुआ सा एहसास लिखा
तुम में तुमको ही पढ़ने का
कई बार अपना व्यर्थ प्रयास लिखा
न जाने कितनी बार हारकर मैंने
तुम्हारी अन्तिम जीत लिखी
कुछ नहीं लिख…………………
मैंने समुद्र के गहरे पानी का
अनमोल सा तुम्हे मोती लिखा
मैंने वृक्षों की चलती हवाओं का
बजता मधुरिम साज लिखा
छंद अलंकार की कसौटी पर
एक श्रृंगार की प्रीत लिखी।
कुछ नहीं लिख…………………
मैंने ठण्ड में गर्माहट देती
तुमको सुकून भरी धूप लिखा
मैंने गर्मी की भीषण तपस में
बारिश की ठण्डी बूंद लिखा
जग के इस नफरती नगर में
तुम्हारी प्रीत की रीत लिखी।।
कुछ नहीं लिख…………………
जग के अमर्यादित शहर में
तुम्हारा मर्यादित व्यवहार लिखा
तुम में देखी छवि माँ सीता की
तुम्हारा पवित्र संस्कार लिखा
चतुर चतरंगी इस दुनिया में
तुम्हारे सद्गुणों की जीत लिखी।।
कुछ नहीं लिख…………………
मोहित शर्मा ‘‘स्वतन्त्र गंगाधर’’