कोई छाया
“कोई छाया”
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तुम्हारी कदमों की
आहट आती है अक्सर
जब अंधेरा फैला हो
आस-पास
मैं पूछती-वहाँ कौन?
तुम कुछ न बोलकर
रहते हो -मौन
मेरे उर की अकुलाहट
लेती है विस्तार
मैं प्रेम में
व्यथित होकर
मृगतृष्णा – सी
भागती हूँ
कभी-इधर
कभी-उधर
तुम्हारे प्रेम-छाँव पाने को
मेरे उलझे
मनु -जीवन के प्रश्न
तुमसे हल करने को
कहाँ गुम हो तुम?
अँधेरे में?
अस्तित्व जताते हो
सामने क्यों नहीं आते हो?
मेरी उत्सुकता बढ़ जाती है
जब कोई छाया
दीवार पर नजर आती हैं
वहाँ कोई टेढ़ा खड़ा है ~तुलसी पिल्लई