कोई और
कविता में कोई और है लेकिन ज़ीवन में कोई और
ए मेरे हृदय रूक ज़ा थोड़ा ज़ाता है किस ओर
परणाम और सम्मान के बीच ये प्रेम कहां से उपज़ा है
क्या लिखूं और क्या ना लिखूं
बस ये ही मेरी दुविधा है
पता नहीं क्यों पल पल ढूंढूं तुझे मै चारों और
कविता में कोई और है लेकिन ज़ीवन में कोई ओर
नज़रो से ज़ो छू लिया तुम ने
किसी छुअन की प्यास नहीं है
पल- पल कल-कल तुझ में डूबी
किसी और की आस नहीं है।
कब निकलूंगी इन यादों से कब होगी न ई भोर
कविता में कोई और है लेकिन ज़ीवन मे कोई ओर
मेरे कृष्णा मेरे कृष्णा
तुझे देख मिटे ना तृष्णा
मीरा की बस यही कहानी
हर युग में तेरी दीवानी
तुझे देख तृप्त हो ज़ाऊं ज़ैसे वरषा में कोई मोर
कविता में कोई और है लेकिन ज़ीवन में कोई और।
ए मेरे हृदय रूक ज़ा थोड़ा ज़ाता है किस ओर।