कोई अपना…
मेरा भी कोई अपना था ,
जीवन में सुंदर सपना था ।
वह मुझको बेहद प्यारा था ,
उस पर मैंने सब हारा था ।
वह प्रेमपूर्ण मेरा संबल ,
वह संग रहे मेरे प्रतिपल ।
यही ललक औ’ यही जिरह थी ,
कभी न आए घड़ी विरह की ।
किंतु काल ने पलटा फेरा ,
हाय ! निशा का घना अंधेरा
जीवन मुझसे रूठ गया
जो अपना था , वह छूट गया ।
अब गीत प्रणय के कैसे गाँँऊ ?
कैसे उसको बिसराऊँ ?
अब बीत रहा जीवन छिन-छिन ,
काट रही हूँँ दिन गिन-गिन ।
हा ! विपदा मुझ पर बड़ी पड़ी
मैं सुख के उस पार खड़ी ।
शिथिल प्राण भए कंपित था मन ,
किंतु पुनः कुछ बदला जीवन ।
मैंने एकटक नभ को देखा
मिटी अकिंचन कुछ दुख रेखा ।
नभ में जगमग एक तारा था ,
नीलगगन से टूट गया ।
जो अबतक तारागण में था ,
एक पल में सबसे छूट गया ।
लेकिन नभ की मर्यादा है
वह गिरा नहीं धरती तल में ।
सहसा एक बिजली कौंध गई ,
देखा मैंने अपने कल में
देखा मैंने अपने कल में…।
(मोहिनी तिवारी)