कैसे वतन भूल जायें
ज़मीं भूल जाएं गगन भूल जाएं।
न हम से कहो हम वतन भूल जाएं।।
शहीदों ने खींचा है इसको लहू से।
मुनासिब नहीं यह चमन भूल जाएं।।
हमें जान से भी है प्यारा तिरंगा।
हम इसके लिए तो कफन भूल जाएं।।
पड़ी जब जरूरत मिटे हैं दीवाने ।
शहादत का कैसे चलन भूल जायें।।
कहें मुल्क़ जिसको वो माँ है हमारी।
तो कैसे ये मिट्टी चरन भूल जायें।।
—— विनोद शर्मा “सागर”