कैसे भूलूं, बता! मैं खताएं तेरी….
कैसे भूलूं, बता! मैं खताएं तेरी।
पास आने को दिल, चाहता ही नहीं।।
आयी दीपावली, सज गई हर गली।
घर सजाने को दिल, चाहता ही नहीं।।
घाव बंदूक के भर गए हैं सदा।
पर जुबां से दिए जख्म भरते नहीं।।
प्यार नफरत में जब से है बदला मेरा।
फिर मुहब्बत को दिल, चाहता ही नहीं।।
ये अंधेरे न मिट पाएंगे अब कभी।
रौशनी जिंदगी में न हो पाएगी।।
प्यार का दीप तुमने बुझाया है जो।
वो जले फिर ये दिल, चाहता ही नहीं।।
झूठ था वो जुनूं, झूठ थी वो वफा।
बात करने की अब फुर्सतें ही नहीं।।
दौर-ए-बदलाव में, दूरियां यूं बढ़ीं।
पास आओ, ये दिल, चाहता ही नहीं।।
अब तो अपने भी अपने नहीं रह गए।
इस कदर मतलबी हो गया हर कोई।।
किसको अपना कहें, हैं पराये सभी।
कुछ सुनाने को दिल, चाहता ही नहीं।।
-विपिन कुमार शर्मा
रामपुर, उत्तर प्रदेश