कैसे भूलूँ
याद करता नही जीत को हार को,
कैसे भूलूँ मगर तेरे किरदार को ..
इक दफा मुड़ के तू प्यार से देख ले,
थोड़ा आराम मिल जाये बीमार को …
रंग फूलों का होठों पे चढ़ जाएगा,
चूमकर देखिये आप भी ख़ार को …
बस इसी बात को इश्क़ कहते हैं सब,
मेरे इक़रार को तेरे इंकार को …
मेरी गर्दन ही कमजोर थी कट गई,
लोग इल्जाम देते हैं तलवार को ..
जो रुका सो रुका जो बढ़ा सो बढ़ा,
क्या कहें इस ज़माने की रफ्तार को …
“जीत” पूरी जवानी तो करते रहे,
कोसते हो बुढ़ापे में क्यूँ प्यार को ..
© जितेन्द्र “जीत”