कैसे ज़मीं की बात करें
जब हुक्म मानते ही नहीं है वहां के हम
कैसे ज़मीं की बात करें आसमां से हम
गुजरे हैं रोज एक नए इम्तिहां से हम
अब दूर जा रहे हैं तेरी दास्तां से हम
कुछ तो बता, हमारा वह कुनबा कहां गया
रो-रो के पूछते हैं यह खाली मकां से हम
क्यों सर झुकाएं ग़ैर ख़ुदाओं के सामने
सब कुछ तो पा रहे हैं तेरे आस्तां से हम
सूली का डर नहीं है, न परवाह मौत की
सच ही अदा करेंगें हमेशा ज़ुबां से हम
होता नहीं यकीन किसी शख्स पर यहां
“वाकिफ हुए हैं जब से फरेबे जहां से हम”
किस्मत के हेर फेर से ‘अरशद’ निकल न पाए
फिर आ गए वहीं पे, चले थे जहां से हम