मेरी फितरत
चले थे संग मंजिल को
लिए एक तेरा ही भरोसा ,
मुझे मझधार में ही छोड़ा
मिला नही तेरा सहारा।
सफर बीता है दिन का जब
निपट निशा तब आयी थी,
भय से हुआ भयभीत तब
जब घनघोर घटायें छायी थी।
भीषण दमक दामिनी की
पुरवाई भी हुई मदान्ध,
खबर बादलों ने ली मेरी
खुद वो लक्षित थे कामांध।
खुल कर खेली वर्षा रानी
अरमानों की जली थी होली,
सफर अधूरा मंजिल का
गली हाथ की मेरी मौली।
फितरत जार-जार मै रोया
तार – तार अरमान हुए,
ऐसा लम्हा कोइ न बीता
जब याद तुम्हे हम नहीं किये।
सोचा सेज किसी की तो
निश्चित आज सजी होगी,
मेरे नहीं तो किसी और की
बाँहों में निश्चित तुम होगी
होकर तब निराश निर्मेष
एक वृक्ष की लिए ओट,
आस किया सुखद उषा की
निज अरमानों का गला घोंट।
निर्मेष