कैसा शरद और कैसा पूर्णिमा
आसमान के आचंल में
दूधिया सा चाँद
गुरु पूर्णिमा का
पूरी रवानी पे है,
अमावस्या को पछाड़ आया
पीछे कहीं ,
भूतकाल के अंधेरे में
विजय पताका लहराता हुआ
नीले आसमान में विचर रहा है
वहीं नीचे
कुछ कुत्ते भौक रहें हैं
कुछ रो रहें हैं ,
और मैं
कभी चाँद को,
कभी कुत्ते को देख रही हूँ
और सोचती हूँ
क्या इस जानवर को
वो पता है जिसे मैं नही जानती ?
क्या वो चाँद से कुछ पूछ रहा है ?
जैसे की,
कैसे तुहे लज्जा नही आती
कैसे इठला सकते हो तुम, जब
लाखों बच्चे भूखे पेट सोने को मजबूर हों,
या
तब जब लाखों हाँथ फैली हो
दरिद्रता की लाठी थामे,
मंदिरो और मस्जिदों के आगे
फिर, कैसा शरद और कैसा पूर्णिमा
तुम तो सब के आंगन घूमते हो
एक समान
वहाँ भी ,जहाँ से छिना जाता है
इन मजलूमों के हक़ के दाने को
और वहाँ भी
जहाँ ये लोग, तुम्हें देख गाते हैं लोरियाँ
अपने भूखे बच्चों को देते हैं थपकी, तुम्हारे नाम से
और कोई शिकायत नहीं करते तुम से
वहाँ भी जहाँ मासूम बेटियों को नोचा जाता है,
उनके जिन्दा जिस्म को गटर बनाया जाता है
फिर तुम्हें लज्जा क्यूँ नहीं आती, इतराने में ?
जाओ, तुम भी कहाँ पुरे हो
इतराओ मत,
ये अँधेरा फिर घेरेगा तुम्हे
थोड़ा -थोड़ा करके
फिर निगल लेगा तुम्हे
फिर तुम्हारी और इनकी
लड़ाई एक जैसी होगी
अपने -अपने हिस्से की
अंधेरे से निकलने की।
तुम तो जीतते ही हो
हर पखवाड़ा
अब इनकी बारी है,
जीतने की अपने हिस्से के अंधेरे से
ताकि इनके बच्चे चाँद छू सके
ताकि तुम पे किसी दिन झंडा गार सके
अपने नाम का, अमिट छाप छोड़ सके !
* 25 -10 -2018
[ मुग्धा सिद्धार्थ ]