कैसा दौर है ये क्यूं इतना शोर है ये
कैसा दौर है ये
क्यूं इतना शोर है ये
खुशी बस तस्वीर में बाकी रही
रिक्तता गहरे अंदर उतरती रही
असमर्थ संवाद, उलझती बातें
दिल खंडहर, सुलगती रातें
बोझिल हुआ जा रहा है इंसान अब यहां
उद्देश्यहीन जी रहा है जहान अब यहां
सुकून ढूंढ़ने को निकला था मशीन में
मशीन बन कर रह गया ख़ूब-तरीन में
सच्चाई अदालतों में दम तोड़ देती है
झूठ को बा-इज़्ज़त कर छोड़ देती है
पैसे ने ख़रीद लिए ईमान भी इंसान भी
गरीब के बिक रहे जमीन भी मकान भी
साधु कर रहे हैं चरित्र का हनन
सत्ता में बैठें हैं शकुनी मगन
न्याय पालिका की हालत बुरी है
नीचे से ऊपर तक घूस चल रही है
सरे आम बिक रहा है नशे का सामान
फिर भी छुप कर ख़रीद रही है आवाम
गरीब दो वक्त की रोटी को मज़दूरी करके रो रहा है
कातिल कैद में भी पकवान खाकर चैन से सो रहा है
प्रेम को रोज़ दफनाया जा रहा बेहतरी के नाम पर
जिंदा लाशें फेरे ले रही सरकारी नौकरी के नाम पर
औरत को समेटते रह गए चूल्हे और बिस्तर तक
देवियों को पूजते रहे ये घर से पहाड़ियों तक
बंट गया संसार जाति, धर्म और राजनीति में
इंसान बन गया भगवान बेबकूफों की परिणीति में
मोह माया अहंकार ने इंसान की बुद्धि को हर लिया
भाई ने भाई की जमीन पे ही कब्ज़ा कर लिया
रिश्तों को निभाया जा रहा है हैसियत देख कर
ईश्वर को मनाया जा रहा है इंसानियत बेच कर
जीवन के उद्देश से आज हर तबका भटक चुका है
भेजा था जो रक्षक जमीं पर वही भक्षक हो चुका है
करोड़ों की संपदा हासिल करने में जिसे जमाने लगे
पांच कुंतल लकड़ियों में आज उसे अपने ही जलाने चले
शमशान में जलती लाशों में अब कोई कमी भी नहीं रही
बंजर हो चुका इंसान अब इस जमीं में नमी ही नही रही
कैसा दौर है ये
क्यूं इतना शोर है ये
– मोनिका