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16 Oct 2021 · 10 min read

कैलाश मानसरोवर यात्रा (पुस्तक समीक्षा)

पुस्तक का नाम : कैलास मानसरोवर यात्रा
लेखक एवं प्रकाशक : ब्रजराज शरण गुप्त चाँदीवाला एडवोकेट, कूँचा परमेश्वरी दास, जिला रामपुर (उत्तर प्रदेश)
प्रथम संस्करण संवत 2045
मूल्य ₹5
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समीक्षक: रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा,
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451
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कैलाश मानसरोवर यात्रा श्री ब्रजराज शरण गुप्त द्वारा सितंबर 1984 में की गई तीर्थ यात्रा के वृतांत की पुस्तक है । इसमें आपका राष्ट्रीय चिंतन तथा श्रद्धालु धार्मिक ह्रदय प्रकट हो रहा है। साठ पृष्ठ की पुस्तक विस्तार से यात्रा के एक एक कदम पर जो लेखक को महसूस हुआ ,उसका पता बताती है। यात्राएँ अपने समय के परिदृश्य का चित्रण करती हैं और उसके बाद अगर परिदृश्य बदल जाते हैं तब वह यात्रा वृतांत इतिहास के प्रष्ठों पर अमिट हो जाते हैं और उनसे इस बात का पता चलता रहता है कि किसी विशेष समय में वहाँ क्या-क्या हुआ था । यह पुस्तक इसी कोटि का प्रामाणिक दस्तावेज है।
कैलाश मानसरोवर यात्रा का सौभाग्य कम लोगों को ही मिलता है । 55 वर्ष की आयु के बाद ब्रजराज शरण जी इस यात्रा पर गए। आपने यात्रा की अनुमति देने वाले विभाग को लिखा कि 55 वर्ष से अधिक आयु वालों को तो अवश्य अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी आयु प्रतीक्षा नहीं कर सकती । सौभाग्य से अंतिम क्षणों में आपको यात्रा की अनुमति प्राप्त हो गई। यात्रा 1 सितंबर 1984 को दिल्ली से शुरू हुई और पूरे 1 महीने तक चली। पुस्तक के अनुसार आपने राष्ट्रीय एकात्मता का बोध यात्रा के शुभारंभ में कर लिया था । आपके समूह में 22 सदस्य थे ।अधिकांश यात्री दक्षिण भारत और बंगाल के थे ।उत्तर प्रदेश से आपके साथ केवल एक अन्य सज्जन ही शामिल थे । आपने लिखा “दक्षिणतम भाग का निवासी सुदूर हिमालय में स्थित कैलाश के प्रति उतनी ही आस्था रखता है जितना कि किसी अन्य भाग का व्यक्ति । यह तीर्थ वास्तव में ही भारत की अखंडता और एकता के प्रतीक हैं ।”(प्रष्ठ 8)
आप प्याज तक नहीं खाते थे । ऐसे में आपको यात्रा में बहुत असुविधा भी हुई क्योंकि कई बार प्याज तो छोड़िए ,शाकाहारी भोजन भी अनेक स्थानों पर उपलब्ध नहीं हो पा रहा था ।आप ही के शब्दों में “…सुंदर व्यवस्था थी पर शाकाहारी के लिए विष भरा कनक घट समान थी ।”(प्रष्ठ 25)
यात्रा में शुरुआत में ही आपने तेजी के साथ यात्रा करना आरंभ किया लेकिन पहाड़ की चढ़ाई ने आपको यह सबक दिया कि “…मार्ग में रुक-रुक कर विश्राम करते हुए आना चाहिए था । गर्मी में बिना ठंडा हुए ठंडा शरबत पीना भी सही नहीं रहता।”( पृष्ठ 11)
पुस्तक में कुछ स्थानों पर आपने दैनिक डायरी की शैली में यात्रा का विवरण लिखा है ।इस दृष्टि से यह पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं”… आज धूप नहीं निकली । चारों ओर बादल मँडरा रहे हैं । हवा जोरों से चल रही है। निकट के पहाड़ से टकराकर बादल नीचे हमारे पास आ रहे हैं । यद्यपि विश्रामगृह सुंदर है । आगे बरांडा है । उसमें कुर्सियाँ पड़ी हैं। पर ठंडी हवा में वहाँ बैठना बहुत कठिन था । चारों ओर फूल खिल रहे थे । उद्यान सुंदर था।”( पृष्ठ 15 )
यात्रा में आपने कुछ गाँवों तथा बस्तियों की जीवनशैली को भी परखा और अपने लेखन में उसको भी स्थान दिया । कुछ ऐसा ही 11000 फीट की ऊँचाई पर गर्व्यांग चोटी का दृश्य था । वहाँ पर आपने बस्ती को देखा और लिखा ” गर्व्यांग की बस्ती बहुत पुरानी मालूम होती थी । लकड़ी के दरवाजों और दरों में पच्चीकारी का काम उत्तम था । बड़े-बड़े मकान थे । पर सूने पड़े थे । पूछने पर बताया कि पहाड़ खिसकने से बस्ती उजड़ रही है।”( पृष्ठ 17 )
लेखक ने ,इसका मतलब है कि, ग्राम वासियों से कुछ जानकारी प्राप्त की और पूछताछ की। यह लेखक की अनुसंधानकारी रुचि को दर्शाता है । यही परिवेश का चित्रण 10500 फीट ऊँचाई पर गुंजी नामक स्थान पर पहुंचने के बाद लेखक की शोध वृत्ति ने अनुभव किया। यहाँ भी लेखक ने फूल गोभी, बंद गोभी ,मूली ,कद्दू अर्थात गंगाफल आदि देखा । उसने लिखा “बस्ती भी बड़ी पुरानी है । लकड़ी के दो मंजिले मकान देखे। हवा से बचने और प्रकाश के लिए छोटे-छोटे रोशनदान या खिड़की शीशों से बंद थीं। यहां सीढ़ियाँ विचित्र दिखीं। एक ही लट्ठे में पैर रखने के गड्ढे बनाए गए थे।”( प्रष्ठ 18)
यात्रा में कष्ट ही कष्ट मिलते हैं। 13 सितंबर को सुबह 3:00 बजे यात्रा का वृतांत लेखक ने इन शब्दों में लिखा है “…सामान ट्रक में लाद दिया । ऊपर से भेड़ बकरियों के समान हमें भी उसी में भर दिया। मार्ग पथरीला और कच्चा था । धूल खूब उड़ी और मेरा तो दम घुटने लगा । बहुत परेशानी हुई । कुछ देर बाद मैंने नाक पर मफलर लपेट लिया ।तब शांति से साँस लेता रहा। पर कुछ देर तो मृत्यु सम बहुत कष्ट हुआ। कहीं-कहीं बस्तियाँ मिलीं। वहाँ कुछ खेती भी थी ।अन्यथा भेड़ बकरी ही देखे। एक ही प्रकार के साधारण से हल्के पेड़ भी वहाँ उगाए गए थे अन्यथा सब ओर सूना रूखा दृश्य था । पहाड़ों की बर्फ से ढकी चोटियाँ तो बराबर दिखाई देती रहीं।”( पृष्ठ 26)
कैलाश बेस कैंप में पहुँचने के बाद कैलाश शिखर बहुत निकट ही देखने को महसूस होता था । लेकिन यह अभी कई किलोमीटर दूर था। लेखक ने यहाँ का वर्णन इस प्रकार किया है “यहाँ घोड़े नहीं मिलते। याक मिलते हैं जिन्हें झब्बू कहते हैं। यह बैल के समान होते हैं पर इनकी पूँछ झब्बादार बालों का एक बहुत बड़ा गुच्छा होती है। इनका ही चँवर बनाया जाता है। इनके सींग बहुत बड़े और यह शरीर से बहुत तगड़े होते हैं। यहाँ इन पर ही सामान ढोया जाता है और यह सवारी के भी काम आते हैं। सभी साथियों ने झब्बू किए। मैंने सोचा था कि मैं पैदल ही परिक्रमा करूंगा, पर सब के कहने पर न नहीं कर सका और झब्बू कर लिया। प्रातः यात्रा पर चल पड़े “(प्रष्ठ 28- 29 )
सफर जितना ऊँचाई पर बढ़ता जा रहा था ,ठंड उतनी ही अधिक होती जा रही थी। ऐसा एक अनुभव लेखक ने लिखा है “मैं लेटा और नित्य अनुसार एक गिलास में पानी सिरहाने रख कर सो गया । रात में कई बार नींद खुली। कभी-कभी लगा कि दम घुट रहा है और तभी मुख उघाड़ कर उठ बैठा । पानी पीने को गिलास उठाया। मुख को लगाया, पर उसमें पानी नहीं था। मैं घबराया कि आज सब पानी बिस्तर के नीचे बह गया लगता है। मैंने टॉर्च जलाकर देखा तो पता चला कि सारा पानी पारदर्शक ठोस बर्फ जम गया है ।”(पृष्ठ 30)
इसी से मिलता-जुलता एक और विवरण देखिए” तभी मैंने वापस लौटते हुए देखा कि बेस कैंप के सामने की एक बरसाती झील भी जम गई थी । विशेष आश्चर्य तो तब हुआ जब मैं बेस कैंप में पहुँचा । प्रातः काल जो पानी मंजन के बाद कुल्ला आदि करके डाला था ,वह भी सब बर्फ में परिणत हो गया था । इससे ठंड की कल्पना सही अर्थों में सामने आई ।”(पृष्ठ 43 )
पहाड़ की यात्रा पर पानी का बर्फ में देखते ही देखते बदल जाना अपने आप में एक जादुई घटना होती है । यह यात्रा के कष्टों को भी बताती है। लेखक ने इन सब का सजीव विवरण देकर यात्रा वृतांत को बहुत मूल्यवान बना दिया है । इससे पाठकों की रुचि भी पुस्तक पढ़ने में बढ़ गई है। यह लेखकीय क्षमता का द्योतक है।
मानसरोवर 15000 फुट की ऊँचाई पर था। लेखक ने बड़े साहस के साथ इस सफर को तय किया था । इतनी ऊँचाई भी उसे डरा नहीं पाई । लेकिन फिर भी परिस्थितियों का चित्र इन शब्दों में मिलता है ” इस समय हम मानसरोवर की ऊँचाई 15000 फुट पर थे। पर ऊँचाई का आतंक अब नहीं था। ऐसे घूम रहे थे जैसे किसी हिल स्टेशन पर हों। पर जरा तेज चलते ही साँस फूलने पर होश आ जाता था कि हम विशेष ऊँचाई पर हैं।”( पृष्ठ 41)
पहाड़ पर चलना कितना कठिन रहा होगा ,इसका चित्र लेखक ने इस प्रकार खींचा है “सोचा अब 5 मिनट का ही तो रास्ता है । पर यह 5 मिनट का रास्ता कैलास यात्रा की वास्तविक कठिनाई का प्रदर्शन था। एक कदम भी पूरा नहीं चला जा रहा था। एक पैर रखकर साँस भरना ,फिर अगला पैर रखकर साँस लेना, इस प्रकार 1-1 पैर बढ़ाकर स्लो मार्च करते हुए यह रास्ता काफी देर में पूरा किया। ऊपर पहुंच कर देखा एक पठार- सा खुला मार्ग है। एक ओर एक विशाल पर्वतखंड कपड़े की रंग- बिरंगी झंडियों से सजा है । मूल तिब्बती लोग इसकी परिक्रमा कर रहे हैं ।”(पृष्ठ 31)
यात्रा में पर्वत की एक चोटी पर बर्फ इस तरह बिखरी हुई थी कि आध्यात्मिक अक्षर ?️ बनता हुआ दिखाई दे रहा था। लेखक ने उसे कैमरे में सुरक्षित कर लिया और पुस्तक में प्रकाशित किया ।
कैलाश मानसरोवर यात्रा का वर्णन करने से पहले ही लेखक के दिमाग में तिब्बत के बारे में कुछ विचारधाराएँ थीं। इनका सुंदर उपयोग पुस्तक में हुआ है ।लेखक के राष्ट्रीय विचारों से कैलाश मानसरोवर यात्रा के संबंध में उसको अध्ययन करने में बहुत सुविधा रही ।लेखक ने लिखा है “तिब्बत स्वतंत्र देश था। भारत और तिब्बत के आध्यात्मिक संबंध बने रहे । पर भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल के द्वारा तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को मान्यता देने के बाद तिब्बत चीन के आधीन हो गया। चीनियों ने वहां की संस्कृति को तथा धर्म स्थलों को नष्ट किया ,मठों को ध्वस्त कर दिया और अमूल्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों के भंडारों को अग्नि की भेंट कर दिया। अब तो उन मठों के स्थान पर कुछ भग्नावशेष पत्थरों के ढेरों के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उन मठों में लामा लोग रहा करते थे। वहाँ के निवासी आज भी बड़ी श्रद्धा से उन ढेरों की परिक्रमा करके ही आगे बढ़ते हैं ।यह मठ कैलाश पर्वत की परिक्रमा में भी थे।। केवल एक मठ हमें देखने को मिला।”( पृष्ठ 6)
स्पष्ट है कि लेखक के पास न केवल इतिहास की जानकारी है अपितु इतिहास के प्रति एक स्पष्ट दृष्टिकोण भी है । यह लेखक की राष्ट्रीय विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है ।
अब यह मठ कैसा है ,आइए इसके दर्शन करें । यह मठ लामा मठ अथवा गोम्फा कहलाते हैं। यात्रा में यह मठ लेखक को मिला। लेखक को ध्यान से देखने पर यह दिखाई दिया कि ” यह कमरा नहीं गुफा थी। इसके अंदर पुजारी बैठे माला जप रहे थे। वह एक लंबा चोगा पहने हुए थे। जैसा और भी तिब्बती पहने थे। पैरों में कपड़े का जूता मोजा पहने थे। अंदर चबूतरे पर कोई प्रतिमा नहीं थी, पर बीच में कुछ मूर्ति के समान ही रखा था। सात दीपक पीतल के बड़े आकार के घी से भरे हुए तैयार रखे। सात ताँबे के कटोरे जल से भरे रखे थे ।एक पँक्ति में 7 शंख रखे थे। आगे नीचे एक गड़ुवा जैसा रखा था । इस पर मोरपंखी लगी थी। यही दृश्य बाहर के भाग में भी था। पर यह दीपक, कटोरे, शंख सभी अंदर के सामान से आकार में बड़े थे। जो आता, जूता पहने ही अंदर चला जाता था । सिर झुकाता था और पुजारी जी उसी गड़ुए को टोपी के समान पहले उसके सिर पर टेकते थे, फिर उसमें से जल चरणामृत के समान देते थे और वह भक्त उसे पी लेता था। फिर प्रसाद में एक छोटा सा लड्डू देते थे जो पास रखे कठोर दान में बंद थे ।कई महिलाएं बच्चों के साथ थीं। उन्हें पुजारी ने कुछ गंडे- ताबीज के समान कुछ धागा आदि दिया । अखंड दीपक दोनों जगह जल रहे थे। मैंने भी दंडवत किया तो उसी प्रकार मेरे मस्तक पर गढ़वा छुआ कर जल दिया और दो लड्डू दिए। …..फिर मैंने उनसे वार्तालाप का प्रयास किया । संस्कृत में भी ,हिंदी में भी ,पर कुछ परिणाम नहीं निकला । उन्होंने भी कुछ पाठ आरंभ किया , पर वह मैं नहीं समझ पाया । संकेतों से भी कुछ विशेष काम नहीं चला । मैंने अपने कान के लिए संकेत किया कि कम सुनाई पड़ता है तो वे उठे। बाहर आए और एक शंख उठाकर मेरे कान में फूँक दिया और फिर अपने आसन पर जा बैठे । इस प्रकार कोई परस्पर वार्ता या विचारों का आदान-प्रदान संभव नहीं हो पा सका । बस मैं केवल यह समझ पाया कि तिब्बत और भारत में आध्यात्मिक संबंध एक से हैं। पूजा पद्धति में ,भक्ति भावना में आज भी साम्य है। तिब्बत के गोम्फा या लामा मठ देखने का सुअवसर प्राप्त होने का संतोष हुआ।”(प्रष्ठ 34)
अगले दिन की यात्रा में लेखक ने अपने संस्मरण इस प्रकार लिखे हैं “अब चलते चलते रंग बिरंगे पत्थर बीनते चलते रहे। कहीं-कहीं पत्थरों के ढेर बने थे। उन पर तिब्बती भाषा में खुदाई किए शिलालेख जैसे पत्थरों के टुकड़े और सींग सजा कर रखे थे। ज्ञात हुआ कि यह प्राचीन मठों के ध्वंसावशेष हैं।… तिब्बती बालक और महिलाएँ हमें देख कर खुश होते थे ।उन्हें कुछ खाने को दो, तो वे ले लेते थे ।कुछ मना कर देते थे। सब खाल के कपड़े पहने थे। कच्ची ईंटों से बने कुछ मकान भी देखे। मैं बेस कैंप से पहले ही झब्बू से उतर गया। मैंने यात्रा आरंभ पैदल की और अंत भी पैदल ही करना चाही।”( प्रष्ठ 35 )
समूचे यात्रा वृतांत में लेखक कुछ जानने की जिज्ञासा के साथ तथा एक शोधपरक वृत्ति लेकर यात्रा के लिए रवाना हुआ और पूरी यात्रा भर वह चीजों को कुरेद कर उसके मूल तक पहुँचना चाहता है ।लेखक के इसी शोधार्थी दृष्टिकोण ने उसे बौद्ध मठों में गहराई से वहाँ की कार्यप्रणाली को जानने के लिए प्रेरित किया। मार्ग में पड़ने वाली बस्तियों के बारे में जाँच-पड़ताल करने तथा वहाँ के निवासियों से वार्तालाप करने का शुभ अवसर प्रदान किया । लेखक केवल अपने लक्ष्य पर पहुँचकर वहाँ से वापस नहीं आना चाहता था। वह यह भी जानना चाहता था कि हम किन रास्तों से होकर मानसरोवर तक पहुँचते हैं तथा उन रास्तों में किस प्रकार का प्राकृतिक तथा मानवीय सौंदर्य बिखरा हुआ है। इन सब का उत्तम रीति से चित्रण कैलास मानसरोवर यात्रा पुस्तक में हमें दिखाई पड़ता है। पूरा एक माह लेखक को यात्रा करते हुए बीता तथा यह उसके जीवन की एक सुंदर उपलब्धि रही।
श्री बृजराज शरण गुप्त रामपुर में राष्ट्रीय विचारधारा के अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता थे ।इमरजेंसी में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को गिरफ्तार किया गया ,तब श्री ब्रजराज शरण जी भी गिरफ्तार होकर जेल में रखे गए ।उस दौरान अपार कष्ट उन्हें सहना पड़ा। 1946 में जब वह लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे, तभी संघ के संपर्क में आकर वह इसके स्वयंसेवक बन गए थे तथा बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जिला संघ चालक पद को लंबे समय तक सुशोभित किया ।आप संघ के समर्पित स्वयंसेवक थे। रामपुर में 1955 में सरस्वती शिशु मंदिर तथा बाद में सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कॉलेज खोलने का मुख्य श्रेय आपको ही जाता है ।आप स्वभाव से अत्यंत सरल प्रवृत्ति के थे ।आपका खान-पान, रहन- सहन अत्यंत साधारण तथा विचार उच्च कोटि के थे ।यद्यपि आप जनसंघ के संस्थापकों में से रामपुर में एक रहे लेकिन राजनीति आपके स्वभाव से मेल नहीं खाती थी ।आपकी अतिशय सरलता, पद के प्रति कोई आकर्षण न रखना तथा निष्काम भाव से लक्ष्य के लिए कार्य करते रहने की आपकी अनूठी कार्यशैली ने उन सबके मन में आपके प्रति गहरी श्रद्धा भर दी थी ,जो आप के संपर्क में आए । 1 जुलाई 1997 को आपका निधन हुआ था। कैलाश मानसरोवर यात्रा आपके सात्विक जीवन दर्शन तथा राष्ट्रीय विचारधारा का सदैव बोध कराती रहेगी।

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