कैक्टस
कैक्टस
मैं कैक्टस हूँ
एक पौधा,काँटे बेशुमार
कैक्टस यानी काँटो का सिंगार
काँटे-मेरे जीवन का आधार
मैं वंदनवार में सजाए
कहीं किसी गमलों में मिल सकता हूँ।
किसी बेजान जंगल
या,बियाबान रेगिस्तान में भी
खिल सकता हूँ।
कैक्टस-काँटे जिनके अज़ीज़ है
भला ये भी कोई देखने की चीज है
कैक्टस-और शोभा में सजे गमले
असंगत प्रतीत होते जुमले
पर यही सत्य का ककहरा है
आखिर गुलाब पे भी तो कंटकों का पहरा है
फिर एक मैं ही बिलग,अछूत
विषम परिवेश का अवधूत
मुझे देखो,सिर्फ देखो
पर छूना मत
मुझे दामन में मत समेटों
उँगलियाँ बिंधति है
मेरा दोष नहीं, ये मेरी नियति है
तन बदन,अंग अंग पर
सिर्फ काँटे मिले हैं मुझे
शुष्कता, विषमता से बचाता
काँटों का सुरक्षित ढाल
पर,इन्हीं काँटों के आवरण में
संचित है एक हृदय बेहाल
तुम खंज़र मत चुभाना,
मत करो मुझपे वार।
मेरे इस कंटकी चोला से
ज्यादा पैनी इसकी धार।
मैं डरता हूँ
विषैले काँटो के मध्य रहकर भी
मेरा अंतस,शूल-सा न तन सका
खंजर का वार सह सके
ऐसा दुर्भेद्य न बन सका।
एक जरा सी चोट से
कमबख्त लहू रिसता है
रिसता ही जाता लगातार
कैक्टस
जिसकी नियति ही है काँटे
उसके दामन में और काँटे न चुभाओ
कुछ तो तरस खाओ
मुझे मत काटो।
मुझे जीने दो।
-©नवल किशोर सिंह