कृष्ण
श्रीकृष्ण
।।।1।।।
यादवो के सिरमौर,
धारण कर मुकुट मौर,
जिनके करते सब दर्शन,
वो हैं धारी चक्र सुदर्शन,
जब जब बने प्रभु धर्म के रक्षक,
तब तब किया अधर्म का भक्षक,
ब्रज का ग्वाला,
रंग का काला,
हर नीति में निपुण,
शत्रु का करता मरण,
माखन उसने चखा,
कृष्णा का वो सखा,
इंद्र का किया मान भंग,
गिर को धारण कर अंग,
राधा को लगाया संग,
गोपियों को किया तंग,
गए एक दिन सब छोड़,
साथियों का दिल तोड़,
कंस का किया अंत,
हर्ष उठे सब साधू संत,
अब मगध उठा दहल,
की जरासंध ने पहल,
संग सेना मथुरा चढ़ आया,
कर एकत्रित असुर लाया,
हुआ संग्राम अति भारी,
जरासंध की सेना हारी,
अनेक बार किये आक्रमण,
हर बार हुआ सेना का मरण,
अबकी बार लाया कालयवन को जोड़,
रण से भगवान भागे कहलाये रणछोड़,
युक्ति से कराया उस असुर को भस्म,
मथुरा छोड़ आये द्वारका हुई सारी रस्म,
।।।2।।।
कृष्णा स्वयंवर में पांचाल आये कृष्ण,
आज उपस्थित थे नर और नारायण,
धर्म स्थापना हेतु तत्पर थी अग्निसुता,
संग पांडवो के चली छोड़ घर पिता,
प्रेम का रखने मान किया रुक्मणी हरण,
भीम अर्जुन संग प्रभु पहुँचे आज मगध,
भीम के हाथों जरासंध हीन हुआ मगध,
इंद्रप्रस्थ में अत्याचारी शिशुपाल का किया मरण,
द्रोपदी की सुन करुण पुकार,
दौड़े आये प्रभु करने उपकार,
दुःशासन का देखा कितना दुःसाहस,
अबला अपमान का उसने रचा रास,
खींच खींच साड़ी धरा पर पापी गिरा,
प्रभु हँसे साड़ी नहीं, हैं कफ़न तुम्हारा,
।।।।।3।।।।।
बीत चुकी कठिन वनवास की अवधि,
प्रभु समक्ष विराट बने पांडवो के समधी,
आज आर्यावर्त खड़ा युद्ध के किनारे,
कल सुनाई देंगे अपनो के चीत्कारें,
दुर्योधन खुश हुआ पाकर नारायणी सेना,
नर नारायण दोनों संग फिर तो क्या कहना,
बन पांडवो के दूत प्रभु हस्तिनापुर आए
संधि करने प्रभु शांति का संदेशा लाए,
महाराज बने पुत्र स्नेह में अंधो के अंधे,
शकुनि था कुटिल रचता फरेब के धंधे,
भीष्म की बूढ़ी आँखे देखती राज सिंहासन,
द्रोण बिक चुका था खाकर राजवंश का अन्न,
धर्म हो या अधर्म कर्ण को भायी मित्रता,
जाति जाति सुन मन मे थी बड़ी खिन्नता,
दुर्योधन ने प्रभु के सभी प्रस्ताव ढुकराये,
अति अभिमान में प्रभु को बिसराये,
आज सभा में चला प्रभु को बांधने,
सब हुए अचंभित क्या चला साधने,
जंजीरे पड़ गई अति छोटी,
उसकी बुद्धि हो गई मोटी,
प्रभु ने दिखाया विराट स्वरूप,
धन्य धन्य हुए सब देख उनका रूप,
दे गए चेतावनी अब युद्ध होगा,
धर्म के समक्ष अधर्म का नाश होगा,
छोड़ सभा प्रभु चले संग लेकर कर्ण,
दिया ज्ञान धर्म के साथ कर्ण लड़ो रण,
प्रभु के ज्ञान से कर्ण नही हुआ विचलित,
एक क्षण के लिए भी मित्र के लिए नहीं घात,
प्रभु ने बताया कर्ण को उसका जन्म रहस्य,
कर्ण हुआ बड़ा ही अचंभित जान रहस्य,
विनती करता प्रभु पांडवो से न कहना,
मेरी राह अलग उसी पर है अब चलना,
विराट नगर लौट आये प्रभु हस्तिनापुर छोड़,
अब सेना को एकत्रित करने की लगी होड़,
।।।जेपीएल।।।।