कृष्ण – द्रौपदी सवांद
कृष्ण-
-सखी ,यह मैं क्या देख रहा हूँ, ललाट पर चिंता की लकीरें हैं आई,
चेहरे पर उदासी है,आंखे हैं सजल,किस चिंता में हो समाई।
है रुप तुम्हारा लिए कालिमा,क्या कुछ प्रतिशोध है शेष रहा,
या-पश्चाताप कि अग्नि में हो,यह शरीर तुम्हारा जो जल रहा ।
महारानी हो हस्तिनापुर की,क्यों निचेष्ठ यों बैठी हो,
मन कहीं और लगा है,व ताक कहीं और रही हो,
कहो बहना, कुछ तो बोलो,क्यों है यह चुप्पी छायी हुई,
वो सब कुछ पा लिया है तुमने, जो प्रतिञा थी तुम्हारी ठानी हुई ।
द्रौपदी-
झर- झर आंसू,रुंधा कण्ठ,कुछ ना कह पायी पांचाली,
लिपट गयी वह कृष्ण से,और बन बैठी वह रुदाली ।
कृष्ण उसे सहलाते रहे,वह आंसू रही बहाती. ।
कृष्ण-
उठो (उसे उठाकर पंलँग पर बिठाते हुए कहते हैं) सखी,
सम्हालो स्वयंम् को,
क्या चिंता है- क्यों हो इतनी बिचलित सी,
साम्रा़ञी हो तुम अब, हस्तिनापुर की ।
द्रौपदी-
यह क्या हो गया सखा-!
ऐसा तो मैने सोचा ही ना था ।
कृष्ण-
सखी- नियति बहुत क्रूर होती है! अपनी राह चलती है,
हमारे कर्मो के परिणाम,वह होकर निष्पक्छ,
लाती है हमारे ही समक्छ ।
वैसे तुम ही तो आतूर थी,और प्रतिशोध ही तो चाहती थी,
वह तुम्हे मिल गया, तो क्यों अब हो पछताती ।
दुर्योधन, दुशासन ही नहीं,मारे गये हैं सब कौंरव,
होना चाहिए था तुमको प्रसन्न,और दिख रही हो उद्धिग्न ।
द्रौपदी-
केशव-क्या तुम मेरे घावों को सहलाने आये हो,
या उन पर नमक छिडकने आये हो ।
कृष्ण-
नहीं सखी-नही-मैं तो वास्तविकता ही बतला रहा था,
प्राणियों को प्राणियों के कर्मौ के फल समझा रहा था ।
द्रौपदी-
तो माधव,क्या मैं ही दोषी हूँ-
मैं ही हूँ इस सब विभिषिका की उत्तरदायी!
कृष्ण-
नहीं द्रौपदी, स्वयंम को इतना महत्वपूर्ण मत समझो,
पर हाँ अपने विवेक से सोच के देखो ।
द्रौपदी-असहज होकर पुछती है-
मैं क्या कर सकती थी ,मधूसुदन!
कृष्ण-
कुछ ऐसा जो कर दिया! कुछ ऐसा जो नहीं करना था ।
द्रौपदी-
मैं समझी नही-!केशव-
कृष्ण- तो सुनो-
कर्ण का अपमान स्वयम्बर में-
यदि ना होता!तोपरिणाम कुछ और ही होता !
कुंती का आदेश पालन कि वच्चनवद्दता-
पांच पतियों कि पत्नि बनना ,स्वीकार कर लेना?
यदि नही होता,तो परिणाम कुछ और ही होता !
दुर्योधन को अपने.महल में उलाहना देकर उस पर हंसना,
उसका उपहास -परिहास करना?
यदि ना होता, तो परिणाम कुछ और ही होता !
हे सखी-द्रौपदी -बिना सोचे समझे कुछ भी कर जाना,
बिना बिचारे कुछ भी कह जाना!
उसके दुशपरिणाम सिर्फ स्वयंम को ही नहीं दुखाते,
अपितू समस्त परिवेश को भी प्रभावित हैं कर जाते ।
हमारे शब्द ही हमारे कर्म हैं बन जाते,
मनुष्य संसार का वह प्राणी हैजिसके दातौं मे्ं नही,
ब्लकि उसके शब्दौं में जहर समाया है
और शब्दौं का उचित चयन है समाधान यही मैने समझाया है ।