कृष्ण ! तुम कहाँ हो ?
लघुकथा: कृष्ण ! तुम कहाँ हो ?
##दिनेश एल० “जैहिंद”
सर्व विदित है, औरतें बातूनी होती हैं ।
उन्हें पड़ोसियों की बातें करने में जो आनंद आता है वो आनंद अपने खोये हुए बेटे को भी पाकर नहीं होता होगा ।
जब औरतें फुर्सत में होती हैं तो मत पूछिए, गर कोई सुन ले तो कान पक जाए ।
सुबह-सुबह ऐसी ही तीन पड़ोसिनें गाँव के बाहर मिल जाती हैं । फिर तो……
“सुनती हो सरला बहिन !”
सरला सुनकर विमला के पास आ जाती है । फिर कमला पीछे क्यूँ रहती, वह भी साथ हो लेती है ।
“रामखेलावन की बेटी बगल वाले गाँव के एक लड़के के साथ भाग गई है ।’’
“क्या ! सच्ची !!” सरला थोड़ी अचम्भित हुई ।
“अरे, सारे गाँव में हल्ला है और तुझे पता नहीं है ।”
“नहीं ।” सरला ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया ।
“मुझे तो पता है पहले से ही, सप्ताह होने को आया ।” कमला ने बीच में ही कहा— “ सुन ! मैं एक ताजा खबर बता रही हूँ । तेरी बगल में वो सुगिया काकी है न, उनकी बेटी मोबाइल पर बात करते हुए पकड़ी गई । सुना है, खूब पिटाई हुई है ।”
“ऐसा क्या !” विमला ने विस्मित होकर कहा— “बाबा रे बाबा ! घोर कलयुग आ चुका है ।”
“घोर कलियुग !” कमला ने बात बढ़ाई— “ घोर कलियुग से भी आगे बढ़ चला है वक्त ।”
“हाँ रे ! तू ठीक कह रही है ।” सहमति जताते हुए सरला ने कहा—- “राम और कृष्ण की धरती पर अब क्या-क्या देखने और सुनने को मिल रहा है । पता नहीं अब से आगे क्या
होगा ?”
“अब से आगे क्या होगा, वही होगा जो रहा है ।” विमला ने जैसे निर्णायक स्वर में कहा— “शंकर काका की बेटी और उनके छोटे साले के बीच तीन महीने से क्या खिचड़ी पक रही है,
पूरा गाँव जान रहा है ।
“तौबा रे तौबा ¡” कमला ने सिर आसमान की ओर करके कहाँ— “महापाप ! कृष्ण कहाँ हो तुम !!”
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दिनेश एल० “जैहिंद”
14. 08. 2017