कृषक
गरीबों को मोहताज अन्न के दाने हो रहे
घर में चूहे जले ज़माने हो रहे ..
बूढ़ी मां पानी पी-पीकर सोती है
छुटकी बिटिया भूख में
बिलख-बिलख कर रोती है
देखो ठेकेदारों के बड़े मयखाने हो रहेे ..
गरीबों को मोहताज़ अन्न के दाने हो रहे …
घर की लक्ष्मी बाट जोहते बैठी रहती है
अभी सजेगा हाँथ निवाला
बच्चों को कहती रहती है
नहीं नई तस्वीर है ये
दर्द अब पुराने हो रहे
गरीबों को मोहताज अन्न के दाने हो रहे ….
बड़का छुटकी को समझाता
जब हाथ निवाला आएगा
बटा निवाला वो बचा बचाकर खाएगा
इतने दिन की रुकी हुई-सी
वह अपनी प्यास बुझाएगा
नहीं मजबूरियां ये नई, सबब पुराने हो रहे ..
गरीबों को मोहताज अन्न के दाने हो रहे ….
थका हारा वह किसान जब
वापस घर को आता है
बाट जोहते घर वालों का
तांता-सा लग जाता है
आंखों में आशाओं के
दीप ज्वलित हो उठते हैं
उन पखले पेटों में
भूख के अंगारे धधकने लगते हैं
रो पड़ती हैं दसों दिशाएं
जब वह क्षण फिर आ जाता है
वह किसान जब अपनों को
खाली हाथ दिखाता है
वहीं ठहर जाती है धरती
आह सिसकने लगती है
आशाओं की वें पलकें
झर झर बहने लगती हैं
नहीं नये है यह जख्म , अब पुराने हो रहे ..
गरीबों को मोहताज अन के दाने हो रहे …
छुपा अंधेरे में खुद को माँ अपने
आंचल से मुंह ढक रो लेती है
टूट चुकी हर आशाओं से
अपना आपा खो देती है
कब तक हे जगदीश्वर !
ऐसा दिन दिखलाएगा
एक वक्त का भोजन हो
भाग्य में ऐसा दिन कब लाएगा
दिलासाओं से अपने बच्चों का
विश्वास भी खो बैठी हूं
जो आस उन्हें दिखलाती थी मैं
आस वही खो बैठी हूं
क्या “अन्नदाता ” हमको ऐसे ही
तड़प-तड़प मरना होगा
क्या ऐसे ही अन्यायों को
हमको सहना होगा
बदलाव की बात तो बात है
वह वादे अब पुराने हो रहे
गरीबों को मोहताज अन्न के दाने हो रहे ….
निहारिका सिंह