कृति : माँ तेरी बातें सुन….!
” माँ…!
मैं कभी भी तुझे…
बहुत कुछ कह जाती हूँ…!
अपनी सीमा भी लांघ जाती हूँ…
शरारत की अंबार झड़ी बन जाती हूँ..!
मैं क्यों…?
अपनी ज़िद में अड़ जाती हूँ…!
मैं तुझे क्यों…
समझ नहीं पाती हूँ…!
जब कभी माँ-माँ चिल्लाती हूँ…
सारे काम छोड़, दौड़ी चली आती है…!
मेरी सारी अनर्गल बातें भूल…
मुझे अपनी गले लगा जाती है…!
और कह जाती हो…
क्या हुआ मेरी गुड़िया रानी को,
माँ तेरी ये बातें सुन…
मेरी आंख भर आती है…!
अनेक बार कह जाती हो…
मेरी प्यारी मित बन जाती हो…!
तुम हो प्रकृति की…
एक अनुपम उपहार…!
तेरी एक मुस्कान से…
खिल उठती है अपना घर-संसार…!
चाह में तेरी, हर माँ-बाप…
चल पड़ते हैं, नीम-हकीम के द्वार…!
अपनी मांग की मन्नत लेकर देव-द्वार…
अर्पण करते हैं अनेक पुष्पों की हर…!
और भी जातें हैं चिकित्सक द्वार..
करतें हैं कितने वैद्य-उपचार…!
मगर प्रभु की है, हम पर बड़ी उपकार…
तुम हो अपनी,
प्रेम-प्रतीक उपमा अलंकार…!
माँ तेरी ये बातें सुन…
मेरी आंख भर आती है…!
माँ तेरी ममता देख…
ये दुनिया की सारी दौलत,
पत्थरों की ढेर नजर आती है…! ”
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