कृतिम ज़िन्दगी
मैं मौत नहीं,
मैं जीवन हूँ,
ज़िन्दगी के बोझ से,
बुझा बुझा सा हूँ,
मेरा जीवन कृतिम है,
मेरी मौत कृतिम होगी,
इसी लिए,
कि मेरा सम्बंध,
परमात्मा से टूट सा गया है,
मानव के मकड़जाल में,
उलझ के रह गया है.
मेरे हाथ-पैरों की हड्डियाँ,
पिघल गयीं थीं,
इन्हें टाइटेनियम से बनाया गया है,
मेरे कानों के दायरे सीमित हैं,
इनमे श्रवण उपकरण लगा है,
मेरी शिराए,
तांतों की बनायीं गयीं हैं,
इनमे बहने वाला रक्त लाल नहीं,
श्वेत है,
क्योकि इसे अनुसंधान शाळा में बनाया गया है,
मेरा ह्रदय मेरा नहीं,
इसे पिट्सबर्ग में बनाया गया है.
मैं जो कह रहा हूँ,
कृतिम है,
मेरी आवाज़ मेरी नहीं,
यह कृतिम स्वर नलिका की ध्वनि है.
जीवन के इस रंगमंच को,
पल पल बदलते दृष्टान्तों को,
कांच की पुतलियों से,
देख रहा हूँ,
मेरी रेटिना पर,
जो तुम्हारा चित्र अंकित है,
वह धुंधला है,
कैमरे की तरह,
अनगिनत यादों को उभार रहा है,
मेरा मस्तिष्क एक कारखाना है,
कम्प्यूटरों का समूह है,
मेरी सोच,
इस युग से बहुत आगे है.
मेरा चेहरा मेरी पहचान नहीं,
इसे प्लास्टिक सर्जरी से,
सुन्दरतम गढ़ा गया है,
मेरी नाक, मेरे होंठ, मेरे कान,
प्रसिद्ध बोलीवुड अभिनेताओं की प्रतिकृति है,
मेरे विचारों में,
राम, रहीम, नानक, मसीह और बुद्ध का,
समावेश है,
मेरा कोई मजहब नहीं,
बस इंसानियत है,
विज्ञानं और वैज्ञानिक अनुसन्धान का,
परिचायक हूँ,
मैं मौत नहीं,
मैं जीवन हूँ,
“मिलन”