कुहासा है घना बेशक हमें चलना ही है साथी
यहांँ की हर परिस्थिति में हमें ढ़लना ही है साथी।
कड़कती धूप हो फिर भी हमें जलना ही है साथी।
यही कर्त्तव्य अपना है नहीं इससे विमुख होना,
कुहासा है घना बेशक हमें चलना ही है साथी।
कभी जाड़ा कभी गर्मी, कभी बरसात के दिन हैं।
कभी होली दशहरा ईद की मुलाकात के दिन हैं।
नहीं रुकने कभी देते हैं हम यह रेल का पहिया,
भले विजली कड़कती हो या फिर हिमपात के दिन हैं।
सन्तोष कुमार विश्वकर्मा सूर्य