कुली
कुली ————– उठो भई, सब उठो, इन्दौर स्टेशन आने वाला है’ गिरीश ने अपने परिवार को बताते हुए कहा। सामान इकट्ठा किया जाने लगा। लम्बे अरसे के बाद गिरीश अपने परिवार के साथ इन्दौर दर्शन को जा रहा था। ‘सब नग गिन लो, कुल मिलाकर पन्द्रह नग हैं’ नगों को गिनाते हुए गिरीश बोला। अलसाये हुए बच्चे उचक कर खड़े हो गयेे। गिरीश की पत्नी रंजना अपना सुघड़ रूप दिखाते हुए अत्यन्त कुशलता से सामान को एक जगह इकट्ठा कर रही थी। रेलगाड़ी की गति धीमी हो रही थी। रेल की पटरियां रेलगाड़ी को इन्दौर स्टेशन की ओर ले जा रही थीं।
‘पापा, वो देखो पीले बोर्ड पर इन्दौर जंक्शन लिखा है’ मुन्नी ने कहा तो गिरीश भी मुन्नी संग उत्साहित हो उठा। रेलगाड़ी उस पीले बोर्ड को पार करती हुई प्लेटफार्म पर पहुंच चुकी थी। ‘इन्दौर वाला पीला बोर्ड तो पीछे छूट गया और गाड़ी तो रुकी ही नहीं’ गिरीश का बेटा उपेन्द्र मासूमियत से बोला। उसकी भोली बात सुनकर गिरीश और रंजना को अकस्मात् हंसी आ गई। ‘उपेन्द्र, तुम बोलो ओ रेलगाड़ी रुक जा, फिर देखो, बच्चों की बात हर कोई सुनता है’ गिरीश ने कहा। ‘गाड़ी, रुक जा’ मासूम उपेन्द्र ने कहा तो धीमी होती गाड़ी अब रुक गई थी। ‘पापा, सचमुच गाड़ी रुक गई, यह तो जादू हो गया’ उपेन्द्र खुशी के मारे चिल्लाया। ‘अरे बेटा, जादू वादू कुछ नहीं है, गाड़ी को पूरे प्लेटफार्म की लम्बाई तय करनी पड़ती है इसलिए धीरे धीरे करके रुकती है।’ ‘अच्छा, तो आपने मुझे लल्लू बनाया’ उपेन्द्र मुंह बनाकर बोला तो गिरीश और रंजना दोनों को हंसी आ गई और गिरीश ने उपेन्द्र को प्रेम से उठा लिया।
डिब्बे में हलचल शुरू हो गयी थी। गाड़ी के डिब्बे में अनेक किस्म के यात्री थे, कुछ अकेले, तो कुछ आपसी मित्र तो कुछ गिरीश के परिवार की भांति। डिब्बे के दोनों दरवाजों से कुछ लोग एकमात्र बैग टांगकर उतर रहे थे तो कुछ परिवार अपने थोड़े से सामान के साथ उतर रहे थे। कुछ लोग उम्र में बड़े हो चुके थे और उन्हें सामान उठाने के लिए कुलियों का सहारा चाहिए थे सो कुली भी डिब्बे में चढ़ आये थे। इसी ऊहापोह में एक बुजुर्ग कुली ने गिरीश के इकट्ठे किये सामान को देखना शुरू किया तो मुन्नी एकदम से बोली ‘पापा, वो देखो, हमारे सामान पर ….।’ गिरीश को फिर से हंसी आ गई। पर बच्चों की यह पहली रेलयात्रा थी इसलिए उनका अनुभव नया था। वे हर चीज को गौर से देख रहे थे।
‘बाबा, बहुत सामान है, कैसे उठाओगे’ गिरीश ने कहा। ‘आप चिन्ता न करें बाबूजी, जिन्दगी यहीं काटी है, जितना सामान मैं उठा सकता हूं उतना तो एक पहलवान भी न उठा पाये, सामान उठाते उठाते ही तो अपनी जिन्दगी का बोझ और अपने परिवार का बोझ उठाता आया हूं’ कुली ने कहा। ‘पर ….’ गिरीश ने कहा। ‘बाबूजी, चिन्ता न करें, आप अपना कीमती सामान अपने साथ रख लें और बाकी को मैं संभालता हूं और हां बच्चों का ध्यान रखिएगा। रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म से सामान तो चोरी होता ही है, बच्चे भी कभी कभी चुरा लिये जाते हैं’ कुली ने सावधान किया फिर बोला ‘बाबू जी, सामान उठाने का तरीका होता है। सबसे पहले अपना सारा सामान गाड़ी से उतार कर प्लेटफार्म पर रख लो’ कहते कहते उस बुजुर्ग कुली ने दो बड़ी अटैचियां उठाईं और प्लेटफार्म पर उतर गया। रंजना नीचे उतर कर सामान के पास खड़ी हो गयी और कुली ने गिरीश की मदद से धीरे-धीरे सारा सामान नीचे उतार लिया।
‘बहुत सामान है बाबू जी, किसी शादी ब्याह में आये हैं या इन्दौर ट्रांसफर हो गया है क्योंकि भाषा से आप इन्दौर के नहीं लगते’ कुली का अनुभव बोल रहा था। ‘अरे नहीं यह बात नहीं है, मैं बरसों पहले इन्दौर में ही रहता था, अब दिल्ली में हूं। इस बार सभी ने कहा कि आप अपने जन्म स्थान घुमा लाओ, तो इस तरह से आना हुआ’ गिरीश ने कहा। मुन्नी और उपेन्द्र चुस्ती फुर्ती से सामान पर निगाहें जमाए हुए थे। कोई भी जरा पास से निकलता तो सामान पर अपने हाथ रख कर यह जताने का प्रयास करते कि ये सामान उनका है इधर देखना भी मत।
‘बाबा, नग ज्यादा हैं, तुमसे न हो पायेगा, तुमने डिब्बे से उतारने में जो मदद की है, उसका मेहनताना मैं तुम्हें दे देता हूं’ गिरीश ने कहा। ‘क्या बात करते हो बाबूजी, अभी रुकिये तो सही’ कहते कहते कुली ने अपने सिर पर कपड़े का गोल-सा मैला कुचैला पटका रखा। सबसे पहले दो बड़े सूटकेस अपने सिर पर रखे उस पटके पर एक-एक करके टिका दिए। सूटकेस भरे हुए थे पर कुली के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। फिर उन सूटकेसों पर कुली ने होलडाल रख दिया। उसके हाथ श्रीराम की भुजाओं की तरह लम्बे और मजबूत थे। सिर पर रखे सामान को एक बार संतुलित करने के बाद कुली ने गिरीश से कहा ’बाबू जी ज़रा ये बैग उठा दीजिए।’ गिरीश हिचकिचा रहा था पर कुली के मजबूत स्वर ने उसका विश्वास बढ़ा दिया और गिरीश ने उसके एक हाथ में बैग थमा दिया जिसे कुली ने एक अद्भुत तरीके से उचका कर अपने कंधे पर चढ़ा लिया और बोला ‘बाबू जी, इसी तरह एक और बैग दीजिए और फिर दूसरे हाथ में बाकी के दो बैग भी दे दीजिए।’
गिरीश और वंदना को यकीन नहीं हो रहा था। वे उसके बूढ़े कंधों की मज़बूती देखकर हैरान थे। देखते देखते कुली के पास सात बड़े नग हो गए थे। दो हैंडबैग गिरीश ने उठा लिए थे और दो रंजना ने संभाल लिये थे क्योंकि उनमें कीमती सामान था। बाकी चार थैले थे जो दोनों बच्चों ने पूरे जोश से संभाल लिये थे। ‘चलो बाबा’ गिरीश ने कहा और कुली ऐसे चल पड़ा जैसे रेस लगाने से पहले खिलाड़ी जमीन पर अपने पैरों की मुद्रा बनाते हुए और हाथ जमीन पर टिकाए हुए पिस्तौल की फायर की आवाज का इंतजार कर रहे होते हैं।
‘बहुत तेज चल रहा है कुली, उसके पीछे पीछे चलते रहो’ रंजना ने सभी से कहा। इतने में कुली पुल की सीढ़ियां चढ़ गया और गिरीश परिवार सहित उसके पीछे पीछे। ‘इतनी सीढ़ियां चढ़ कर तो मैं थक गई हूं’ रंजना हांफ रही थी। ‘चलो, चलो, हिम्मत रखो’ गिरीश ने कहा और देखा कि दोनों बच्चे जबरदस्त उत्साह से कूदते-फांदते चल रहे थे। थोड़ी दूर जाने के बाद पुल से उतरने की सीढ़ियां आ गई थीं। ‘चलो, अब तो उतरना है, कोई दिक्कत नहीं होगी’ गिरीश ने मुस्कुरा कर रंजना से कहा। ‘हां, ठीक कहते हो, जीवन में चढ़ना ही कठिन होता है, हिम्मत और विश्वास की परीक्षा होती है, उतरने में तो महसूस ही नहीं होता’ रंजना ने कहा। ‘तुम जिसे उतराई कह रही हो, वह कभी कभी गिरना भी कहलाता है’ गिरीश ने दार्शनिकता का जवाब दार्शनिकता से दिया। ‘और, जीवन में गिरने से हमेशा बचना चाहिए’ रंजना ने अपनी बात कही। ‘हां, और अगर कोई गिर जाए तो उसे उठाना भी चाहिए’ गिरीश ने कहा। ‘हां, क्योंकि जीवन का कुछ पता नहीं, हम भी कभी गिर सकते हैं, अगर हम किसी गिरे हुए को उठायेंगे तो ईश्वर भी हमारे कभी गिरने पर किसी को हमें उठाने के लिए भेजेगा’ रंजना कहते कहते मुस्कुराई।
बातों-बातों में सीढ़ियां समाप्त हो गई थीं। गिरीश और रंजना शीतल मौसम में भी पसीने से तरबतर हो गये थे पर कुली के चेहरे पर बिल्कुल वैसी तरोताजगी जैसे दोनों बच्चों के चेहरों पर थी। ‘बाबा, तुमको पसीना नहीं आता क्या?’ गिरीश ने पूछा। ‘ऐसा नहीं है बाबू जी, दरअसल पसीना मेरा साथी बन चुका है। जब मैं काम पर होता हूं तो वह बिल्कुल परेशान नहीं करता। और जब मैं कभी-कभी आराम करता हूं तो वह भी मेरे साथ आराम करने आ जाता है मतलब कि मुझे चाय पीते, खाना खाते पसीना आता है तब मैं पसीने के आंसुओं को अपने गमछे से पोंछ देता हूं’ कुली ने कहा। ‘पसीने के आंसू’ गिरीश ने कहा। ‘हां बाबूजी, पसीने के आंसू, गरीब का पसीना उसकी गरीबी पर आंसू बहाता है।’ यह सुनकर गिरीश खामोश रह गया।
आखिरकार प्लेटफार्म का द्वार आ गया जहां टिकट चैक किये जा रहे थे। गिरीश ने टिकट निकाल कर दिखाये और टीटी के आश्वस्त होने पर वे प्लेटफार्म से बाहर निकल गये। बाहर तरह तरह के वाहनों का तांता लगा था। गिरीश का मित्र राजन भी वहां पहुंच चुका था। ‘मित्र, क्षमा करना, देर हो गई, प्लेटफार्म पर नहीं पहुंच पाया’ राजन ने कहा। ‘एक मिनट राजन, जरा कुली का बोझ उतरवाने में मदद करो, फिर बातें करते हैं’ गिरीश ने कहा। ‘ठीक कहते हो भई’ कहते हुए राजन ने गिरीश के साथ मिलकर सभी सामान उतरवा लिया। ‘बहुत बहुत धन्यवाद बाबा, कितनी मेहनत हुई तुम्हारी’ गिरीश ने पूछा। ‘अरे, तुमने पहले तय नहीं किया, पहले ही मोल कर लेना चाहिए था, अब तो जो मुंह खोल देगा वही देना होगा’ राजन ने कहा। ‘ऐसा नहीं है मित्र’ गिरीश ने कहा। ‘अरे तुम जानते नहीं हो’ राजन थोड़ा गुस्साया था। ‘राजन, परेशान न हो, मुझे इंसानियत पर पूरा भरोसा है’ गिरीश ने समझाया।
‘तुम जरा यहीं भाभी के पास रुको, मैं आया’ कहकर वह कुली के पास गया और उसे कुछ कहता हुआ एक स्टाल पर गया और वहां से पोहा और चाय लाकर कुली को दे दी। ‘बाबा, कितना मेहनताना हुआ’ गिरीश ने वहीं पर पूछा जिससे कि राजन के कानों में आवाज़ न जाये। ‘बाबू जी, आप एक अच्छे इंसान हैं। मैं आपसे क्या मांगूं, आपने बिना मांगे ही मुझे नाश्ता करा दिया है’ कुली भावुक हो गया था। ‘नहीं भाई, हम सभी इंसान हैं और एक दूसरे का ध्यान रखना चाहिए’ गिरीश ने बोला। ‘क्या हुआ दोस्त, इतनी देर क्यों लग रही है’ दूर खड़े राजन ने पुकारा। ‘अभी आया, जल्दी बताओ बाबा, फिर हमें जाना है और दूसरी गाड़ी आने वाली होगी और तुम्हें भी रोजीरोटी के लिए जाना होगा’ गिरीश ने कहा। ‘बाबू जी, आप सिर्फ डेढ़ सौ रुपये दे दीजिए’ कुली ने कहा। ‘डेढ़ सौ! क्या बात करते हो, भावनाओं में मत बहो, यह लो पांच सौ का नोट। साढ़े तीन सौ तुम्हारी मेहनत के और डेढ़ सौ रुपये मेरी तरफ से क्योंकि इतने बरसों बाद मुझे इन्दौर देखने आने की खुशी भी है’ कहते हुए गिरीश ने कुली के हाथ में पांच सौ रुपये का नोट रख दिया और चल पड़ा। ‘बाबू जी, जब इन्दौर से वापिस जाइयेगा तो सामने वाले स्टाल से जहां से आप पोहा और चाय लाये हैं पूछ लीजियेगा रामधन कुली कहां है, वह किसी को भेज कर मुझे बुला लेगा। मुझे आपका सामान उठाने में अच्छा लगेगा’ कुली ने पीछे से कहा। गिरीश ने हाथ उठा कर इशारा किया कि वह समझ गया है।
‘गिरीश, तुमने इतनी देर लगा दी, मैं न कहता था कि बिना तय किये कुली बुक करोगे तो बाद में नाहक बहुत परेशानी होगी, मांग लिये होंगे चार पांच सौ रुपये’ राजन ने गाड़ी में सामान रखते हुए कहा ‘और तुम उसे पोहा और चाय पिला रहे थे, वाह मेरे दयालु दोस्त।’ ‘अरे ऐसा नहीं है, उसने मुझसे डेढ़ सौ रुपये मांगे, मैंने पांच सौ का नोट दिया, उसके पास छुट्टे नहीं थे, कहने लगा बाबूजी मुझे भूख लगी है आप सामने से पोहा और चाय खरीद लो, नोट भी टूट जायेगा और फिर डेढ़ सौ में से पोहा और चाय के पैसे काट कर मुझे दे देना’ गिरीश सच नहीं बताना चाहता था। ‘फिर तो ठीक है, वरना कुलियों का कोई भरोसा नहीं’ राजन ने गाड़ी के दरवाजे बंद करते हुए कहा। ‘हां भई बहुत मुश्किल है, किसको कैसे पहचानें!’ गिरीश ने कहा और गाड़ी कालानी नगर की ओर चल दी।