कुर्सी बोल उठी.!
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आज की स्वाधीनता को देख–
रो पड़ी है रूह! उन शहीदों की।
और भारत की राजनीति देख–
बोल उठी कुर्सी भी दिल्ली की।
खा-में-खा बदनाम कर गये मुझे-
देखों! ये बड़ी-बड़ी हस्तियां।
खतरे में पड़ी है आज मेरी लाज!
देखों! उजड़ गयी, ये गरीब बस्तियां।
मैं एक शक्ति हूं- भारत देश की!
मैं प्रशासन की प्रधान कुर्सी हूं।
मैं साहसी हूं और निडर भी हूं ,
मैं दिल्ली की प्रधान कुर्सी हूं।
मेरे कारण- ये वरिष्ठ नेतागण!
कैसे-कैसे, हथ-कंड़े अपनाया करते हैं।
मुझे पाने की लालसा में ये-
कितने बेचैन रहा करते हैं।
मुझे पाकर ये! क्यों भूल जाते है-
जन-जन के साथ किये थे जो वादे।
कुछ याद है इने- सिवाय कुर्सी के!
बस! मुझे पाकर बदले है इनके इरादे।
हर निगाहों में एक लालसा है आज!
तो क्या मैं- इतनी रूपवान हूं…?
लेकिन! नेक नहीं है इनके इरादे!
कोई रोक दे इने- मैं भारत की शान हूं।
जयहिंद!
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रचयिता: प्रभुदयाल रानीवाल==
====*उज्जैन{मध्यप्रदेश}*=====
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