कुर्सी ठग है
देश में कुर्सियों की बाढ़ आई है
जो ये मानते हैं कि – कुर्सी अचर है
वो भूल करते हैं
कुर्सी कब चलने से बाज आई है
कुर्सी कुर्सी को देख हिनहिनाती है
(ये हिनहिनाहट प्रेम या वासना की नहीं
प्रतिजैविक होती है )
कभी लगता है कुर्सी सोती है
झूठ सरासर झूठ
यही वो समय है जब
वो लड़ रही होती है
अपने प्रतिद्वंदियों से
खुद से
देश !
क्यों ले रहे हो इसका नाम
कुर्सी को इससे क्या काम
देश सिरफिरों की बपौती है
कुर्सी के लिए देश -मात्र तिजोरी है
सिरफिरे कुर्सी के दुश्मन होते हैं
ये कुर्सी की दुखती रग है
सच कह दूँ –कुर्सी ठग है ।
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प्रबोध मिश्र ‘ हितैषी ‘
वरिष्ठ साहित्यकार,
बड़वानी (म. प्र. ) 451 551
मो. 79 74 921 930