कुर्बानी!
ये कैसा त्यौहार?
धर्म के नाम पर,
मासूमों की
गर्दनों पर वार।
ये कैसा त्यौहार?
जहाँ सब गलत है सही,
कुर्बानी के नाम पर
ख़ून की नदी बही।
ये कैसा त्यौहार?
सिर्फ मनुष्यों का मल्हार,
मगर हर तरफ है गूंजती
जानवरों की चित्कार।
ये कैसा त्यौहार?
जहा हिंसा ही धर्म हो गया,
बहा सड़कों पे लहू
इंसा बेशर्म हो गया।
ये कैसा त्यौहार?
जहा क़ुरबानी बुराइयों की नहीं,
बेजुबानों की गर्दनें उड़ाने में
सबकी खुशियां रही।
क़ुरबानी अहंकार की हो,
कुरान लिखता हैं
क़ुरबानी अत्याचार की हो,
कुरान लिखता है
क़ुरबानी बुराइयों की हो,
कुरान लिखता हैं
जीत अच्छाइयों की हो
कुरान लिखता है।
– नीरज चौहान
(जीव मात्र को जीने का अधिकार है, इस उद्देश्य से प्रेरित होकर येे कविता लिखी हैं। इसे भड़काऊ ना बनाये। सर्वधर्म समभाव बनाये रखे। सबको जीने दे।)