कुम्हार
ब्रह्माजी का रूप धर,
मृतिका को रौंद कर,
रचे नयी नयी चीज,
कुम्भकार कहलाता।
छोटे छोटे बेच दीया,
जग में प्रकाश किया,
प र्या व र ण सुरक्षा,
खातिर हाथ बँटाता।
रचे ठोंक ठाक नेक,
कृतियाँ भी एक एक,
गढ़ि गढ़ि मूर्तियाँ ये,
देह मिट्टी का बताता।
ब्रह्मजी सेआज कहे,
कृति तेरी धरा गहे,
खोट तेरी रचना में,
मानव क्यूँ बनाता।
बिन बुद्धि मूर्ति मेरी,
बुद्धियुक्त कृति तेरी,
विष भरा तन देखो,
अपनों को भरमाता।
छोटे छोटे दीये मेरे,
तम को भगाये फिरे,
नर तेरी रचना तो,
है महामारी फैलता।
रोग मुक्त गढ़ता हूँ,
भूख हेतु लड़ता हूँ,
समझे ना नर तेरा,
प्लास्टिक अपनाता।
क्यूँ न ऐसी सोच गढ़े,
प्र दू ष ण नहीं बढ़े,
खुशी बढ़े दीये संग,
प्रभु जी से मैं मानता।
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,
उत्तर-प्रदेश