” कुम्हार है हम “
देख बच्चे की बचकानियां ,
कह देते है हम ,
इसी से है सारी परेशानियां ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
बच्चे है कच्चे मिट्टी सा ,
बदले रंग जैसे बदले खरबूजा ।
ना जाने क्यों नही हमने सोचा,
इन्होंने हम मे ही अपना मार्गदर्शक – आदर्श देखा ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
क्या पता इन नादानों को ,
क्या चोरी – चकारी , क्या छल – कपट,
क्या है ये दुश्मनी भारी ।
हमने ही दिखाई इन्हे अत्याचारी,
कैसे हो गई ये भूल भारी ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
इनका मासूम हृदय था प्रेम से भरा ,
हमने ही सिखाया लेन-देन और व्यापारी ।
इन्हे क्या पता ? है क्या ये जिम्मेदारी ,
उङने से पहले हमने पंख इनकी कुतरडाली ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
मुक्त विचार वाले इनके जुबां पर ,
भर दी हमने अपनी गाली ।
भेदभाव से अंजान चरित्र में ,
भर दी हमने शक की चिंगारी ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
दुरगामी सी देखती नज़रो मे ,
धन – संपत्ति की पुलियां जोङ दी ।
सफर का आनंद लेने वाले नन्हे कदमो मे ,
प्रथम आने की होङ लाद दी ।
मासूम सवालों वाले मन मे ,
अपनी तुच्छ लालसा डाल दी ।
अरे ! भूल गए है क्या हम ,
इन ढांचों के कुम्हार है हम ।
– ज्योति