कुण्लिया छंद
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
विषय :– रेत, बालू
विधा :– कुण्डलिया
******************************************
गंगा की मैं गोद में, यह है मेरा धाम।
कहते मुझको रेत है, आती सबके काम।।
आती सबके काम, स्वार्थ क्यूं उर में पालूं।
कंकर जल बेकार, मिले जो गर न बालू।।
कहे सचिन कविराय, मनु मुझ बिन नहीं चंगा।
मेरा पावन धाम, मातु है मेरी गंगा।।
*****************************************
दिन दिन फिसले ये समय, जैसे मुट्ठी रेत।
चाहो इसे सँभालना, रहना सदा सचेत।।
रहना सदा सचेत, रेत सम बनकर रहना।
गर्मी जाड़ा धूप, सदा ऐसे ही सहना।।
कहे सचिन कविराय, करो चिंतन हर पलछिन।
जीवन मुट्ठी रेत, फिसलता जाए दिन दिन।।
===================================
मैं पं.संजीव शुक्ल “सचिन” घोषणा करता हूँ कि मेरे द्वारा प्रेषित रचना पूर्णतः मौलिक ,स्वरचित,अप्रकाशित है
✍️[पं.संजीव शुक्ल “सचिन”]