कुण्डलिया: रोटी
(1)
गाड़ी बँगला आपको, शोभित है श्रीमान ।
मुझ निर्धन को मिला है, कच्चा एक मकान ।
कच्चा एक मकान, सहित कपड़ा जल रोटी।
जग में होय महान, चखें मदिरा सह बोटी ।
आप बड़े विद्वान, सदा मैं रहा अनाड़ी ।
साधन मेरे पाँव, महोदय चढ़ते गाड़ी ।।
(2)
महँगाई की मार से, जीना हुआ मुहाल ।
हुई दीन से दूर अब, चीनी सब्जी दाल ।
चीनी सब्जी दाल, हुआ अब गीला आटा ।
अच्छा चावल आज, गरीबी को है डाँटा ।
सूखी रोटी सिर्फ, दीन को गले लगाई ।
चूस रही है खून, शिखर चढ़कर महँगाई ।।
(3)
रोटी की औकात ही, देती सबको राह ।
बिन इसके रहता सदा, मूलक पथ भी स्याह ।
मूलक पथ भी स्याह, भले हो कृत्रिम उजाला।
हो जाता है क्षीण, स्वाँस आरोहक प्याला ।
एक यही आधार, इसे समझें मत छोटी ।
सकल जगत को शक्ति, प्रदान करे यह रोटी ।।