कुण्डलिया छंद
एक कुण्डलिया
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धरती पर जीता सदा, धरती पर मर जाय ।
कर्म भोग हित जीव फिर, पुनि धरती पर आय ।।
पुनि धरती पर आय, योनि हैं लख चौरासी ।
जीव फिरे भरमाय, चेतना रहती प्यासी ।।
कहे ज्योति कविराय, भक्ति जब उर में भरती ।
बन जाती बैकुंठ , उसी को माता धरती ।।
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-महेश जैन ‘ज्योति’
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