कुण्डलियाँ
(1)
तृष्णा को पाले हुए, बीते सत्तर साल ।
जारी उसका निखरना, मल मल रंग गुलाल ।।
मल मल रंग गुलाल, मांग में भर भर मेंहदी ।
है तो कटि से क्षीण, किन्तु तन से बेपेंदी ।।
फिर भी भरे कुलाच, न भर पाए जो हिरणा ।
ज्यों ज्यों बढती उम्र, त्यों त्यों बढती तृष्णा ।।
(2)
कहीं चूक तो हो रही, बनते भ्रष्ट महान ।
गहरे पानी पैठ कै, लें इसका संज्ञान ।।
लें इसका संज्ञान, पता कर जड़ में जाएं ।
तन-मन-घन कर साफ,देश में वैभव लाएं।।
करें कमी सब दूर, चक्षु जो देखें रहीं सहीं ।
मानव मूल्य हताश, होती चूक यहीं कहीं ।।